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________________ अन्तरात्मा जे जिण-वयणे कुसला, भेयं जाणंति जीव देहाणं । णिजिय-दुट्ठमया अंतरअप्पा य ते तिविहा॥ अन्तरात्मा त्रिविध है-जो जिन-वचनों में कुशल है, जीव और देह के भेद को जानता है और आठ दुष्ट मदों-अभिमानों को जीत चुका है। -कार्तिकेयानुप्रेक्षा ( १९४) सिविणे विण भुंजइ, विसयाई देहाइभिण्णभावमई । भुंजइ णियप्परूवो, सिवसुहरत्तो दु मजिसमप्पो सो॥ शरीर आदि से स्वयं को भिन्न समझनेवाला जो मनुष्य स्वप्न में भी विषयों का भोग नहीं करता अपितु निजात्मा का ही भोग करता है तथा शिवसुख में रत रहता है, वह अन्तरात्मा है । - रयणसार ( १४१) जप्पेसु जो ण वट्टइ, सो उञ्चइ अंतरंगप्पा । जो अन्दर और बाहिर के किसी भी जल्प (वचन-विकल्प) में नहीं रहता, वह अन्तरात्मा कहलाता है । -नियमसार ( १५०) अक्खाणि बहिरप्पा, अंतर अप्पा हु अप्पसंकप्पो। इन्द्रियों में आसक्ति ही बहिरात्मा है और अन्तरंग में आत्मानुभव-रूप आत्म-संकल्प ही अन्तरात्मा है । - मोक्ष-पाहुड़ (५) अपरिग्रह अतिरेगं अहिगरणं। आवश्यकता से अधिक और अनुपयोगी वस्तु क्लेशप्रद एवं दोष रूप हो जाती है। -ओघनियुक्ति ( ७४१) ५८ ] Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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