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________________ जहा दुमस्स पुप्फेसु, भमरो आवियइ रसं । नयपुप्फ किलामेइ, सो य पीणेइ अप्पयं ।। एमेए समणा मुत्ता, जे लोए संति साहूणो । विहंगमा व पुप्फेसु, दाणभत्ते सणे रया ॥ जिस प्रकार भूमर द्रुम-पुष्पों से रस ग्रहण करके अपना जीवन-निर्वाह करता है, पर किसी भी पुष्प का विनाश नहीं करता और अपने को भी तृप्त कर लेता है। उसी प्रकार लोक में जो अपरिग्रही श्रेयार्थी मानव हैं, उन्हें दाता द्वारा दिये जानेवाले विविध आलंबनों से उतना ही लाभ उठाना चाहिये, जितने से अपना निर्वाह ठीक से हो जाये, उनका शोषण और विनाश न हो। –दशवकालिक ( १/२-३) जे सिया सन्निहिं कामे, गिही पव्वइए न से। वह साधु नहीं, सांसारिक वृत्तियों में रचा-पचा गृहस्थ ही है जो सदैक संग्रह की इच्छा रखता है। –दशवेकालिक (६/१६) मुच्छा परिग्गहवुत्तो। मी को ही वास्तव में परिग्रह कहा है । -दशवैकालिक (६/२१), जह कुंडओ ण सक्को सोधेदुं तंदुलस्स सतुसस्स । तह जीवस्स ण सक्का, मोहमलं संगसत्तस्स ॥ जिस प्रकार ऊपर का छिलका या आवरण हटाये बिना चावल का अन्तरंग-मल नष्ट नहीं होता, उसी प्रकार बाह्य परिग्रह-रूप मल जिसके आत्मा में उत्पन्न हुआ है, ऐसे आत्मा का कर्ममल नष्ट होना असम्भव है । -भगवती-आराधना ( ११२० रागविवागसतण्णादिगिद्धि, अवतित्ति चक्कवट्टिसुहं । णिस्सगं णिवुइसुहस्स, कहं अणंतभागं पि॥ चक्रवर्ती का सुख राग-भाव को बढ़ानेवाला है तथा तृष्णा को समृद्ध करने Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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