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________________ संघ चक्र संसार-भव तथा कर्मों का सर्वथा उच्छेद करने वाला है । नन्दीसूत्र (५) कम्मरय-जलोहविणिग्गयस्स, सुयरयण-दीहनालस्स । पंच-महब्वय थिरकन्नियस्स, गुणकेसरालस्स ।। सावग-जण-महुअरिपरिखुडस्स, जिणसूरतेयबुद्धस्स । संघपउमस्स भई, समणगण - सहस्स - पत्तस्स ॥ जो संघ रूपी पद्म, कर्मरज, कर्दम तथा जल-प्रवाह दोनों से बाहर निकला हुआ है-अलिप्त है । जिसका आधार ही श्रत-रत्नमय लम्बी नाल है, पाँच महाव्रत ही जिसकी टढ़ कणिकाएँ हैं, उत्तरगुण ही जिसके पराग हैं, श्रावक जनभ्रमरों से जो सेवित तथा घिरा हुआ है। तीर्थंकर सूर्य के केवलज्ञान तेज से विकास पाए हुए और श्रमण गण रूप हजार पंखुड़ी वाले उस संघपद्म का सदा कल्याण हो। . –नन्दीसूत्र (७, ८) परतित्थियगह-पहनासगस्स, तवतेय दित्त लेसस्स। नाणुज्जोयस्स जए, भह दम संघ सूरस्स ॥ एकान्तवाद, दुर्नय का आश्रय लेने वाले परवादी रूप ग्रहों की प्रभा को नष्ट करने वाला, तप-तेज से जो सदा देदीप्यमान है, सम्यग्ज्ञान का ही सदा प्रकाश करने वाला है, इन विशेषताओं से युक्त उपशम प्रधान संघ सूर्य का 'विश्व में कल्याण हो । -नन्दीसूत्र (१०) भह धिई-वेला-परिगयस्स, सज्झाय-जोग-मगरस्स । अक्खोहस्स भगवओ संघ-समुदस्स रुहस्स ॥ मूल गुण और उत्तर गुणों के विषय में बढ़ते हुए आत्मिक परिणाम रूप जल-वृद्धि वेला से व्याप्त है, जिसमें स्वाध्याय और शुभ योग रूप कर्म विदारण करने में महाशक्ति वाले मकर है; जो परीषह-उपसर्ग होने पर भी निःप्रकम्प है तथा समग्र ऐश्वर्य से सम्पन्न एवं अतिविस्तृत है, ऐसे संघ-समुद्र का 'भद्र हो। - नन्दीसूत्र (११) E २६१ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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