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________________ सम्यक् गुम्फित है, उस श्रुतज्ञान रूपी महासिन्धु को मैं भक्तिपूर्वक सिर नवाकर प्रणाम करता हूँ । श्रुतज्ञान सब ज्ञानों में श्रेष्ठ है । सव्वणाणुत्तरं सुयणाणं । आसासो वीसासो, सीयघर समोय होइ मा भाहि । अम्मापतिसमाणो, संघो सरणं तु सव्वेसिं ॥ - लघुश्रुत भक्ति ( ४ ), - उत्तराध्ययन चूर्णि ( १ ) संघ भयभीत मनुष्यों के लिए आश्वासन, निश्छल व्यवहार के कारण विश्वासभूत, सर्वत्र समता के कारण शीतगृह समान, अविसमदर्शी होने के कारण माता-पिता तुल्य तथा सबके लिए शरणभूत होता है । -- व्यवहारभाष्य ( ३२६ ) २६० ] दंसणणाण चरित्ते, संघायंतो हवे संघो । जो दर्शन, ज्ञान और चारित्र का संग्रहण करता है, इस रत्नत्रय की समन्वित करता है वह संघ है । - भगवती - आराधना ( ७१४ ) गुण-भवण- गहण ! सुयरयण - भरिय ! दंसण विसुद्ध रत्थागा । संघनगर ! भङ्कं ते, अखण्ड-चारित्त - पागारा ॥ Jain Education International 2010_03 संघ है । पिण्ड विशुद्धि, समिति, भावना, तप आदि भव्य भवनों से संघनगर व्याप्त श्रुत-शास्त्र रत्नों से भरा हुआ है, विशुद्ध सम्यक्त्व ही स्वच्छ वीथियाँ हैं, निरतिचार मूलगुण रूप चारित्र ही जिसके चारों ओर प्रकोटा है, इन विशेषताओं से युक्त हे संघनगर ! तेरा भद्र हो । अप्पडिश्चक्कस्स जओ होउ, सया संघ चक्कस्स । For Private & Personal Use Only - नन्दी सूत्र ( ४ ) www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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