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________________ कयवयकम्मो तह सीलवं गुणवं च उज्जुववहारी। गुरु सुस्सूसो पवयण-कुसलो खलु सावगो भावे ॥.. १. जो व्रतों का अनुष्ठान करने वाला है, शीलवान है, २. स्वाध्याय-तपविनय आदि गुण युक्त है, ३. सरल व्यवहार करने वाला है, ४. सद्गुरु की सेवा करने वाला है, ५. प्रवचन-कुशल है, वह 'भाव श्रावक' है ।। -धर्मरत्न प्रकरण (३३) चत्तारि समणोवासगाअदागसमाणे, पडागसमाणे, खाणुसमाणे, खरकंटसमाणे। श्रमणोपासक की चार कोटियाँ हैं-१. दर्पण के समान स्वच्छ-हृदय, २. पताका के समान अस्थिर-हृदय, ३. स्थाणु के समान मिथ्याग्रही, ४. तीक्ष्ण कंटक के समान कटुभाषी। -स्थानांग (४/३) श्रुतज्ञान सव्वं पि अणेयंतं, परोक्खरूवेण जं पयासेदि । __ तं सुयनाणं भण्णदि, संसय पहुदीहि परिवत्तं ॥ जो परोक्ष रूप से समस्त वस्तुओं को अनेकान्त रूप दर्शाता है और संशय आदि से रहित है, वह श्रुतज्ञान है । -कार्तिकेयानुप्रेक्षा (२६२) स्व पर प्रत्यायकं सुतनाणं । स्व और पर का बोध कराने वाला ज्ञान-श्रुतज्ञान है । -नंदीसूत्रचूर्णि (४४) अरहंतभासियत्थं, गणहरदेवेहिं गंथियं सम्म । पणमामि भत्तिजुत्तो, सुदणाणमहोदहिं सिरसा ॥ जो अहंत के द्वारा अर्थरूप में उपदिष्ट हैं तथा गणधरों के द्वारा सूत्ररूप में [ HE Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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