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________________ न वा लभेज्जा निउणं सहायं, गुणाहियं वा गुणओ समं वा । एक्को वि पावाइ विवज्जयन्तो, विहरेज्ज कामेसु असज्जमाणो ॥ यदि अपने से अधिक गुणों वाला अथवा अपने समान गुणों वाला निपुण साथी न मिले, तो पापों का वर्जन करता हुआ तथा काम-भोगों में अनासक्त रहता हुआ अकेला ही विचरण करे। -उत्तराध्ययन (३२/५) महयं पलिगोव जाणिया, जा वि य वंदणपूयणा इहं। साधक-संतों के लिए वंदन तथा पूजन एक बहुत बड़ा दलदल है । -सूत्रकृतांग ( १/२/२/११) पोक्खरपत्तं व निरूवलेवे, आगासं चेव निरवलंबे । साधक को कमलपत्र के समान निर्लिप्त और गगन के समान निरवलम्ब होना चाहिये। -प्रश्नव्याकरणसूत्र ( २/५) कहं नु कुज्जा सामण्णं, जो कामे न निवारए । पए-पए विसीयंतो, संकप्पस वसं गओ॥ वह साधक साधना कैसे कर पाएगा, कैसे श्रामण्य का पालन करेगा, जो काम-विषय-राग का निवारण नहीं करता, जो संकल्प-विकल्प के वशीभूत होकर पग-पग पर विवादग्रस्त है । -दशवैकालिक (२/१) चरे पयाई परिसंकमाणो, जं किंचि पासं इह मण्णमाणो । लाभंतरे जीविय वहइत्ता, पच्छा परिन्नाय मलावधंसी ॥ साधक पग-पग पर दोषों की संभावना को ध्यान में रखता हुआ चले, छोटे से छोटे दोष को भी पाश-जाल समझकर सावधान रहे। नये-नये गुणों [ २५५ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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