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________________ ज्ञान, ध्यान ओर तपोबल से इन्द्रिय विषयों और कषायों को बलपूर्वक रोकना चाहिए, जैसे कि लगाम के द्वारा घोड़ों को बलपूर्वक रोका जाता है । -मरण समाधि ( ६२१) समे य जे सव्वपाणभूतेसु से हु समणे। जो समस्त प्राणियों के समभाव रखता है वस्तुतः वही श्रमण है। -प्रश्नव्याकरण सूत्र ( १/३ ) उवसमसारं खु सामण्णं । श्रमणत्व का सार है-उपशम ! -वृहत्कल्पभाष्य ( १/३५) 'आहारमिच्छे मियमेसणिज, सहायमिच्छे निउणत्थबुद्धिं । नियमिच्छेन्ज विवेग जोग्गं, समाहिकामे समणे तवस्सी॥ समाधि की इच्छा रखने वाले तपस्वी श्रमण परिमित और शुद्ध, संयम'पोषक आहार ग्रहण करे, प्रवीण-बुद्धि के तत्व-ज्ञानी साथी की खोज करे और ध्यान करने योग्य एकान्त स्थान में निवास करें । -उत्तराध्ययन (३२/४ ) बिलमिव पण्णगभूएणं अप्पाणेणं तमाहारं आहारेइ । जिस प्रकार सांप बिल में प्रवेश करता, उसी प्रकार आहार को ग्रहण करना चाहिये। -अन्तकृद्दशाङ्ग ( ६/१४) झाणाभयणं मुक्ख जइ धम्म। ध्यान और अध्ययन करना साधुओं का मुख्य धर्म है । --रयणसार (११) रक्खिज्ज कोहं विणएज्ज माणं । मायं न सेवे परहेज्ज लोहं॥ साधक अपने को क्रोध से बचाए, अहंकार को दूर करे, माया का सेवन न करे और लोभ को त्याग दे । --उत्तराध्ययन (४/१२) २५४ ] ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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