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________________ एगप्पा अजिए सत्तू, कसाया अविजित एक अपना आत्मा ही शत्रु है । ही शत्रु हैं । इन्दियाणि य । अविजित कषाय और इन्द्रियाँ सीसोऽवि वेरिओ सोउ, जो गुरु न चिबोहए । पमायमइराघत्थं, सामायारी विराहियं । यदि गुरु किसी समय प्रमाद के वशीभूत हो जाए और गच्छ के 'नियमोपनियमरूप समाचारी का यथाविधि पालन न करे तब वह शिष्य जो अपने गुरु को सावधान नहीं करता वह भी अपने गुरु का शत्रु माना जाता है । V - गच्छाचार प्रकीर्णक ( १८ ) जाइजरामरणरोगभयदो रक्खेदि अप्पणो अप्पा | जम्हा आदा सरणं, बंधोरयसत्तकम्म वदिरित्तो ।। जन्म, मरा, मरण, रोग और भय आदि से रक्षा करता है, इसलिए वस्तुतः जो कर्मों की बन्ध, से पृथक है, वह आत्मा ही इस संसार में शरण है । उत्तराध्ययन ( २० / ३७ ) दंसणणाण-चरितं सेवेह सरणं सणं किं पिण सरणं संसारे Jain Education International 2010_03 হাञू आत्मा ही, स्वयं ही अपनी उदय और सत्ता अवस्था परम-सद्धाए । संसरंताणं ॥ शरण - बारस अणुवेक्खा ( ११ ) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र ही शरण है । परम श्रद्धा के साथ इनका आचरण करना चाहिए । संसार में भ्रमण करते हुए जीवों को उनके सिवाय अन्य कुछ भी शरण नहीं है । For Private & Personal Use Only 2- कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा ( ३० ) [ २.४७ www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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