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________________ जे आयरियउवझायाणं, सुस्सूसावयणंकरा। तेसि सिक्खा पवड्ढंति, जलसित्ता इय पायवा ॥ जो अपने आचार्य और उपाध्याय की सेवा-शुश्रूषा और आज्ञा पालन करते हैं उनकी शिक्षाएँ-विद्याएं उसी प्रकार बढ़ती है, जिस प्रकार जल से सींचे हुए वृक्ष । --दशवैकालिक (६/२/१२) अद्धाणतेणसावद-रायणदीरोधणासिवे ओभे । वेज्जावच्चं उत्तं, संगह सारक्खणोवेदं ॥ जो मार्ग में चलने से थक गये हैं, चोर, हिंस्रपशु, राजा द्वारा व्यथित,. नदी की रुकावट, मरा-प्लेग आदि रोग तथा दुर्भिक्ष से पीड़ित है, उनकी सारसम्हाल तथा रक्षा करना वे यावृत्य है । -मूलाचार (५/२१८) व्यसन अक्खेहि णरो रहियो, ण मुणइ सेसिंदएहिं वेइय। जूयंधो ण य केण वि, जाणइ संपुण्ण करणो वि॥ अंधा व्यक्ति, आँख को छोड़ अन्य सभी इन्द्रियों से जानता है लेकिन जए में अंधा बना व्यक्ति सब इन्द्रियों के जीवित होते हुए भी किसी इन्द्रिय से कुछ नहीं जान पाता। -वसुनन्दि श्रावकाचार ( ६६) इत्थी जूयं मज्जं मिगव्व वयणे तहा फरुसया य । दंडफरुसत्तमत्थस्स दूसणं सत्त वसणाई। परस्त्री का सहवास, द्युत-क्रीड़ा, मद्य, शिकार, वचन-परुषता, कठोर दण्ड तथा अर्थ-दूषण ( चोरी आदि )-ये सात कुव्यसन है । -बृहत्कल्पभाष्य (६४०), २४६ ]. Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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