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________________ पूज्य आयारमट्ठा विणयं पउंजे सुस्सूसमाणो परिगिज्य वक्कं । जहोवइट्ट अभिकंखमाणो, गुरुतु नासायई स पुज्जो ॥ जो आचार की प्राप्ति के लिये विनय का प्रयोग करता है तथा गुरु की वाणी को एकाग्र चित्त से सुनने की आकांक्षा रखते हुए उन्हें ग्रहण कर वचनानुकरण करता है और कभी भी सद्गुरु की अवज्ञा नहीं करता, वही साधक "पूज्य' है। -~-दशवैकालिक (६/३/२) अलद्धयं नो परिदेवएज्जा, लधु नविकत्थई स पुज्जो॥ जो कुछ भी प्राप्त न होने पर खेद नहीं करता और मिल जाय तो प्रसन्न नहीं होता, वही 'पूज्य' है । -दशवकालिक (६/३/४ ) संतोस पाहन्नरए स पुज्जो। वह 'पूज्य' है जो संतोष-प्रधान जीवन में मस्त रहता है । -दशवैकालिक (६/३/५) वईमए कण्णसरे स पुजो। जो कर्ण-अप्रिय-वचन-बाणों को धैर्य भाव से ग्रहण करता है वह “पूज्य' है। -~~~-दशवैकालिक (६/३/६) जिइन्दिए जो सहई स पुज्जो । जो जितेन्द्रिय साधक है, वही 'पूज्य' है । -दशवैका लिक (६/३/८) वियाणिया अप्पगमप्पएणं, जो रागदोसेहिं समो स पूज्जो। जो मुमुक्षु अपनी आत्मा द्वारा अपनी आत्मा का वास्तविक स्वास्थ्य 'पहचान कर राग व द्वष दोनों में समत्व-योग रखता है, वही 'पूज्य' है । -दशवैकालिक (६/३/११) २७२ ] ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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