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________________ तहेव डहरं च महल्लगं वा, इत्थीं पुमं पन्चइयं गिहिंवा । नो हीलए नो वि य खिसएज्जा, थमं च कोहं च व एस पुजो। क्रोध और अभिमान का परित्याग कर बालक, वृद्ध, स्त्री, पुरुष, साधु, गृहस्थ आदि किसी का भी जो तिरस्कार एवं अनादर नहीं करता, वह 'पूज्य' है। -दशवैकालिक ( ६/३/१२) प्रतिक्रमण दब्वे खेत्ते काले, भावे य कयावराह सोहणयं । जिंदणगरहणणुत्तो, मणवचकायेण पडिक्कमणं ॥ निन्दा तथा गहीं से युक्त साधक का मन, वचन तथा शरीर के द्वारा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के व्रताचरण विषयक दोषों या अपराधों की आचार्य के सम्मुख आलोचना पूर्वक शुद्धि करना प्रतिक्रमण है। -मूलाचार ( १/२८) आलोचणणिदणगरहणाहिं, अन्भुडिओ अकरणाए। तं भाव पडिक्कमणं, सेसं पुण दव्वदो भणिों। आलोचना, निन्दा तथा गहों के द्वारा प्रतिक्रमण करने में तथा पुनः दोष न करने में उद्यत साधक के भाव प्रतिक्रमण होता है। शेष के प्रतिक्रमण-पाठ मादि करना तो द्रव्य-प्रतिक्रमण है । -मूलाचार (७/१५१) पडिसिद्धाणं करणे, किच्चाणमकरणे अ पडिक्कमणं । असदहणे अ तहा, विवरीय परूवणाए अ॥ धर्म-ग्रन्थों में निषेध किए हुए कार्यों को करने पर, करने योग्य कार्यों को नहीं करने पर तत्त्वों में अश्रद्धा करने पर एवं आगम से विरुद्ध प्ररूपण करने पर जो दोष-पाप हो उनको दूर हटाने के लिए प्रतिक्रमण किया जाता है। -वंदित्तुसूत्र (४६) [ १७३. Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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