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________________ आदि के सम्यक् अनुष्ठान से स्वर्ग प्राप्त करना ही अच्छा है। धाम में बैठकर प्रतीक्षा करनेवाली की अपेक्षा छाया में बैठकर प्रतीक्षा करनेवाले की स्थिति में बड़ा अन्तर है। -मोक्षपाहुड़ ( २५) कम्ममसुहं कुशील, सुहकम्मं चावि जाण व सुसीलं । अशुभ-कर्म को कुशील और शुभ-कर्म को सुशील जानो । -समयसार (१४५) जं जं समयं जीवो, आविस्सइ जेण जेण भावेण । सो तम्मि तम्मि समये, सुहासुहं बंधये कम्मं ।। जीव जिस-जिस समय जो कुछ अच्छा-बुरा काम करता है, वह ठीक उसी-उसी समय शुभ या अशुभ परिणामों से आबद्ध हो जाता है । -सार्थपोसह-सज्झायसूत्र (२३) पुरुषार्थ धम्मह अत्थहं कम्महं वि एयह सयलहं मोक्खु । उत्तमु पभणहिं णाणि जिय अण्णे जेण ण सोक्खु ॥ ज्ञानी पुरुष धर्म-पुरुषार्थ, अर्थ-पुरुषार्थ, काम-पुरुषार्थ और मोक्ष-पुरुषार्थ में से मोक्ष-पुरुषार्थ को उत्तम कहते हैं, क्योंकि अन्य पुरुपार्थों में परमसुख नहीं हैं। -परमात्मप्रकाश ( २/३) आलसड्ढो णिरुच्छाहो फलं किंचि ण भुंजदे। थणक्खीरादिपाणं वा पडरुसेण विणा ण हि ॥ जो व्यक्ति आलस्य-युक्त होकर उद्यम-उत्साह से रहित हो जाता है, वह किसी भी फल को प्राप्त नहीं कर सकता। पुरुषार्थ से ही सिद्धि है, जैसेस्तन का दूध उद्यम करने पर ही पिया जा सकता है। -गोम्मटसार-कर्मकाण्ड (८६०) [ १७१ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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