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________________ रत है, जो दान्त है, जो ब्रह्मचर्य में समाहित है, वह साधक धर्म के आराम (बाग) में विचरण करता है। -उत्तराध्ययन (१६/५) धम्म समो नत्थिनिहि। धर्म के समान निधि नहीं है। -वज्जालग्गं (३६/६०-१) पीइकरो चन्नकरो, भासकरो जसकरो रइकरो य। अभयकरो निव्वुइकरो, परत वि अज्जि ओ धम्मो ॥ यह आर्य धर्म इह लोक में प्रीति, वर्ण-कीर्ति या रूप भास-तेजस्विता या मिष्टवाणी, यश, रति, अभय एवं निवृत्ति-आत्मिक सुख का करनेवाला है। -तन्दुल वैचारिक (३४) जीवदया सच्चवयणं, परधणपरिवज्जणं सुसीलं च । खंति पंचिंदिय निग्गहो य धम्मस्स मूलाई ॥ जीवदया, सत्यवचन, परधन का त्याग, शील- ब्रह्मचर्य, क्षमा, पांच इन्द्रियों का निग्रह-ये धर्म के मूल हैं। --दर्शन-शुद्धि-तत्त्व जह भोयणमविहिकयं, विणासय विहिकयं जीवायेइ । तह अविहिकम्मो धम्मो, देइ भवं विहिकओ मुक्खं ॥ जैसे अविधि से किया हुआ भोजन मारता है और विधिपूर्वक किया हुआ जीवन देता है, उसी प्रकार अविधि से किया हुआ धर्म संसार में भटकाता है एवं विधिपूर्वक किया हुआ धर्म मोक्ष देता है । -संबोध-सत्तरि ( ३५) धर्मकथा चरणपडिवत्तिहेउं धम्मकहा। आचार रूप सद्गुणों की प्राप्ति के लिए धर्मकथा कही जाती है। ___-ओघनियुक्तिभाष्य (७) [ १४६ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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