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________________ धर्मकला वावत्तरिकलाकुसला, पंडियपुरिसा अपंडिया चेव । सव्व कलाणं पवरा, जे धम्मकलं न जाणंति ॥ बहत्तर कलाओं में चतुर, सब कलाओं में प्रवीण पण्डित पुरुष भी यदि धर्मकला को नहीं जानते तो वे अपण्डित ( मुर्ख ) ही हैं।। -कामघट-कथानक (१०८) धर्माराधक अविसंवायण संपन्नयाए णं जीवे, धम्मस्स आराहए भवइ । दम्भरहित, अविसंवादी आत्मा ही धर्म का सच्चा आराधक है । -उत्तराध्ययन (२६/४८) एगमवि मायी मायं कटु आलोएज्जा जाव पडिवज्जेजा। अस्थि तस्स आराहणा जो किये हुए कपटाचरण के प्रति पश्चाताप करके सरल हृदयी बन जाता है, वह धर्म का आराधक है । -स्थानांग (८) धर्म-श्रवण धम्मं न लभेज्ज सवणयाए महारंभेण चेव महापरिग्गहेण चेव । दो कारणों से जीव धर्म का श्रवण नहीं कर पाता-(१) महारम्भ के . कारण और (२) महापरिग्रह के कारण । ---स्थानांग ( २/१) १५. ] Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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