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________________ तं तह दुल्लहलंभं, विज्जुलया चंचलं माणुसत्तं । लद्ध ण जो पमायइ, सो कापुरिसो न सप्पुरिसो॥ जो बड़ी कठिनाई से मिलता है, बिजली के सदृश चंचल है, ऐसे मनुष्य जन्म को प्राप्त करके भी जो धर्म-साधना में प्रमत्त रहता है, वह अधम पुरुष ही है, सजन नहीं। __ --आवश्यकनियुक्ति (८४१) भाउ विसुद्धणु अप्पणउ धम्मु भणेविण लेहु । बउगइ दुक्खहँ जो धरइ जीउ पडतउ एहु । स्वयं के शुद्ध भावों का नाम ही धर्म है। धर्म संसार में पड़े हुए जीवों की चतुगति के दुःखों से रक्षा करता है । चत्तारि धम्मदारा खंती, मुत्ती, अज्जवे, महवे। क्षमा, संतोष, सरलता और विनम्रता-ये चार धर्म के प्रमुख द्वार हैं। -स्थानाङ्ग ( ४/४) मोहक्खोह विहीणो परिणामो अप्पणो धम्मो। मोह एवं क्षोभ से रहित आत्मा के परिणाम धर्म हैं । -~भावपाहुड़ (८३) एगे चरेज्ज धम्म। भले ही कोई साथ न दे, अकेले ही सद्धर्म का आचरण करना चाहिए । विणओ वि तवो, तवो पि धम्मो। विनय स्वयं एक तप है और आभ्यंतर-तप होने से श्रेष्ठ धर्म है । -प्रश्नव्याकरण सूत्र ( २/४ ) एओ चेव सुभो णवरि सव्वसोक्खायरो धम्मो। एक धर्म ही पवित्र है और वही सर्वसौख्यों का दाता है । -भगवती आराधना ( १८१३) जइता लव सत्तमसुर, विमाणवासी वि परिवडंति सुरा। चितिज्जतं सेसं, संसारे सासयं कयरं ॥ [ १४७ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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