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________________ मरिहसि रायं ! जयातया वा, मणोरमे कामगुणं विहाय । धम्मो नरदेव ! ताणं, न विज्जई अन्नमिहेह किंखि || एक्को हु हे राजन् ! जब आप इन मनोहर काम भोगों को छोड़कर परलोकवासी बनेंगे तब एक मात्र धर्म ही आप की रक्षा करेगा । हे राजन् ! धर्म को छोड़कर जगत् में दूसरा कोई भी रक्षा करनेवाला नहीं है । - उत्तराध्ययन ( १४ /४० ) अहिंसा सच्यं च अतेणगं व तत्तो य बम्भं अपरिग्गहं च | पडिवजिया पंख महव्वयाणि, वरिज धम्मं जिणदेसिय विदू । अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह - इन पाँच महाव्रतों को स्वीकार करके बुद्धिमान मनुष्य जिन- भगवान् द्वारा उपदिष्ट धर्म का आचरण करे । पन्ना समिक्खए धम्मं । साधक की स्वयं की प्रज्ञा ही धर्म की समीक्षा कर सकती है। [ - उत्तराध्ययन ( २३/२५ ) - उत्तराध्ययन ( २१ / १२ ) १४६ ] जरामरण वेगेणं, बुज्झमाणाण पाणिणं । धम्मो दीवो पट्ठा य, गई सरणमुत्तमं ॥ बुढ़ापा और मृत्यु के महाप्रवाह में डूबते प्राणियों के लिये धर्म ही द्वीप है, गति है, प्रतिष्ठा है, और उत्तम शरण है । धम्मविहीणो सोक्खं, तण्हाछेयं जलेण जह रहिदो । जिस प्रकार मनुष्य जल के बिना प्यास नहीं बुझा सकता, उसी प्रकार मनुष्य धर्म - विहीन सुख नहीं पा सकता । -- सन्मतिप्रकरण (१/३) Jain Education International 2010_03 - उत्तराध्ययन ( २३/६८ ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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