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________________ पिंडं उवहिं च सिज्ज' उग्गमउप्पायणेसणासुद्ध। चारित्तरक्खणट्ठा, सोहितो होइ स चारित्ती॥ भोजन, वस्त्र, मकान तथा अन्य संयम सहायक सामग्री के उद्गम आदि दोषों को वर्जता हुआ जो अपने चारित्र की रक्षा करता है वह वास्तव में चारित्री है। -~-गच्छाचार-प्रकीर्णक (२१) जिनवचन जिणवयणमोसहमिणं, विसयसुह-विरेयणं अमिदभूयं । जरमरणवाहिहरणं, खयकरणं सव्वदुक्खाणं ॥ यह जिनवचन विषय-सुख का विरेचन, जरा तथा मरण रूपी व्याधि का हरण और सर्वदुःखों का क्षय करनेवाला अमृत के समान औषध है । -दर्शन-पाहुड़ (१७) जिणवयणे अणुरत्ता, जिणवयणं जे करेंति भावेण । अमला असंकिलिट्ठा, ते होंति परित्तसंसारी ॥ जो जिनवचन में अनुरक्त हैं तथा जिनवचनों का भावपूर्वक आचरण करते हैं, वे निर्मल और असं क्लिष्ट होकर परीत संसारी हो जाते हैं, अल्प जन्ममरणवाले हो जाते हैं। -उत्तराध्ययन (३६/२६०) तस्स मुहुग्गदवयणं, पुवावरदोसविरहियं सुद्ध, आगममिदि परिकहियं । अर्हत जिनके मुखारविन्द से उद्भूत, पूर्वापर दोष-रहित शुद्ध-वचनों को ही आगम कहा गया है । -नियमसार (८) ससमय-परसमयविऊ, गंभीरो दित्तिमं सिवो सोमो। गुणसयकलिओ जुत्तो, पवयणसारं परिकहेउं ॥ ११४ ] Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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