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________________ गज्जिताणामं एगे णो वासिन्ता । वासित्ताणामं एगे णो गज्जिन्त्ता । एगे गज्जिता बि वासित्ता वि । एगे णो गज्जित्ता, णो वासित्ता । मेघ के समान दानी भी चार प्रकार के नहीं । कुछ देते हैं; किन्तु कभी बोलते नहीं देते भी हैं। कुछ न बोलते हैं, न देते हैं । । चारित्र असुहादो विणिवित्ती, सुहे पवित्ती य जाण चारितं । अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति ही चारित्र है । होते हैं - कुछ बोलते हैं, देते कुछ बोलते भी हैं और कुछ - स्थानांग ( ४/४ ) सुखरित्तो जोई सो लहइ णिव्वाणं । चारित्रशील योगी को ही निर्वाण की प्राप्ति होती है । यथार्थतः चारित्र ही धर्म है । ८ चारितं खलु धम्मो । Jain Education International 2010_03 - द्रव्यसंग्रह (४५) - प्रवचनसार (१/७ ) जणयइ । वारित्तसंपन्नयाए णं सेलेसीभावं चारित्र सम्पन्नता से मनुष्य शैलेसी भाव को प्राप्त होता है । - मोक्षपाहुड़ (८३) थोम्म सिक्खिदे जिणइ, बहुसुदं जो वरित्तसंपुण्णो । जो पुण चरितहीणो, किं तस्स सुदेव बहुपण ॥ चारित्र-सम्पन्न का अल्पतम ज्ञान भी अधिक है और चारित्रहीन का बहुत अधिक शास्त्रज्ञान भी निष्फल है । - उत्तराध्ययन ( २६ / ६१ ) For Private & Personal Use Only -मलाचार (१०/६ ) [ ११३ www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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