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________________ कलंकी सितो वि मियंको जोण्हासलिलेण पंकयवणाई । तह वि अणिgयरोच्चिय, सकलंको कस्स पडिहाइ । चन्द्रमा पंकजवनों को ज्योत्सना - जल से सींचता रहता है, फिर भी वह उन्हें अप्रिय ही है । कलंकी किसे भला लगता है ? - वज्जालग्ग ( ५० / १२ ) कल्याणकारी णिव्वइइ किं पि जह तेवि णिव्वाड ताण सिवं सअलं चिअ सिवअरं तहा ताण । अप्पणा विम्हअमुवेन्ति ॥ स्व-पर के कल्याण को सिद्ध करते हुए मनुष्यों के लिए समग्र लोक ही अधिक कल्याणकारी हो जाता है । उनके लिए कुछ इस प्रकार सिद्ध होता है, जिससे वे स्वयं भी आश्चर्य को प्राप्त करते हैं । - गउडवहो ( ७८ ) इह ते अन्ति कइणो जअमिणभो जाण इस लोक में वे कवि सफल होते हैं, जिनकी अभिव्यक्ति विद्यमान है । २] कवि सअल - परिणामं । वाणियों / काव्यों में सफल णिअआएश्च्चिअवाआए अत्तणो गारवं जे एन्ति पसंसंचिवअ जअन्ति इह ते स्वकीय वाणी के द्वारा ही अपने गौरव को निश्चय ही प्रशंसा प्राप्त करते हैं, वे महाकवि इस लोक Jain Education International 2010_03 - गउडवहो ( ६२ ) णिवेसन्ता । महा - करणो ॥ स्थापित करते हुए जो में सफल होते हैं । — गउडवहो ( ६३ ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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