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________________ नाणस्सावरणिज्जं, दसणावरणं तहा। वेयणिज्जं तहामोहं, आउकम्मं तहेव य॥ नामकम्मं च गोयं च, अंतरायं तहेव य । एवमेयाइ कम्माइ', अट्ठव उ समासओ॥ ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय-ये संक्षेप में आठ कर्म हैं। - उत्तराध्ययन (६४-६५) कर्मण्यता निय वसणे होह वज्जघडिय । अपने कार्य में वज्र के बने हुए की तरह दृढ़ होओ । --कुवलयमाला ( अनुच्छेद ८५) सिग्धं आरूह कज्जं पारद्ध मा कहं पि सिढिलेसु पारद्ध सिढिलियाई कज्जाइ पुणो न सिज्झन्ति । कार्य तेजी से करो, प्रारम्भ किये गये कार्य किसी तरह भी शिथिल मत करो क्योंकि प्रारम्भ किये गए तथा फिर शिथिल किये गए कार्य सिद्ध नहीं होते हैं। -वज्जालग्ग (१/२) कर्मबन्ध अज्झवसिएण बंधो, सते मारेज्ज मा थ मारेज्ज । एसो बंधसमासो, जीवाणं णिच्छयणयस्स ॥ हिंसा करने के अध्यवसाय से ही कर्म का बंध होता है, फिर कोई जीच मरे या न मरे। निश्चय दृष्टि से संक्षेप में जीवों के कर्म-बंध का यही स्वरूप है। -जयधवला (१/४/६४) [ ८१ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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