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________________ दोग्गञ्चाम्मि वि सोक्खाई ताण विहवे वि होन्ति दुक्खाई। कव्व-परमत्थ-रसिआइ जाण जाअन्ति हिअआई॥ जिनके हृदय-काव्य तत्त्व के रसिक होते हैं, उन व्यक्तियों के लिए निर्धनता में भी कई प्रकार के सुख होते हैं तथा वैभव में भी कई प्रकार के दुःख होते हैं। ____~~गउडवहो (६४) बहुओ सामण्ण-मइत्तणेण ताणं परिग्गहे लोओ। कामं गआ पसिद्धि सामण्ण-कई अओच्चेअ॥ अत्यधिक लोग सामान्य मतित्व के कारण सामान्य कवियों के सम्मान में प्रशन्नतापूर्वक तत्पर रहते हैं । इसीलिए सामान्य कवि प्रसिद्धि को प्राप्त हुए । -गउडवहो (७५) कह कह वि रएइ पयं मग्गं पुलएइ छेयमारुहइ । चारो व्व कई अत्थं घेत्तूणं कह वि निव्वहइ ॥ जिस प्रकार चोर सावधानी से पैर रखता है, भयवश इधर-उधर मार्ग देखता है, भित्ति-छिद्र अर्थात सेंध पर चढ़ता है और किसी भी प्रकार कठिनाई से द्रव्य ले जाता है, वैसे ही कवि सावधानी से पद-रचना करता है, वैदर्भी आदि सुकुमार तथा कठोर शैलियों का चिन्तन करता है, छेकानुप्रास की योजना करता है एवं अर्थ को लेकर कठिनाई से उसका निर्वाह करता है। -~-वजालग्ग (३/४) कषाय तं नियमा मुत्तव्वं, जत्तो उपज्जए कसायग्गी । तं वत्थु धारिज्जा, जेणोवसमो कसायाणं ॥ जिससे कषाय-रूप अग्नि प्रदीप्त होती है उस काम को निश्चित छोड़ देना चाहिये और जिनसे कषाय दमन होती है, उन्हें धारण करना चाहिये । -गुणानुरागकुलक (११) [ ८१ ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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