SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 100
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिस प्रकार कहीं ऋण देते समय तो धनी बलवान होता है तो कहीं ऋण लौटाते समय कर्जदार बलवान होता है । अधुवे असासयम्मि, संसारम्मि दुक्खपउराए । किं नाम होज तं कम्मयं, जेणाऽहं दुग्गइं न गच्छेज्जा ॥ अध्र ुव, अशाश्वत और दुःखप्रचुर संसार में ऐसा कौन-सा कर्म है, जिससे दुर्गति न जाऊँ । - बृहत्कल्पभाष्य ( २६६०) - उत्तराध्ययन ( ८ / १ ) जो इ' दियादिविजई, भवीय उवओगमप्पगं झादि । कम्मेहिं सो ण रंजदि, किह तं पाणा अणुचरंति ॥ जो इन्द्रिय आदि पर विजय प्राप्त कर उपयोगमय - ज्ञानदर्शनमय आत्मा का ध्यान करता है, वह कर्मों से नहीं बँधता ! अतः पौद्गलिक प्राण उसका अनुसरण कैसे कर सकते हैं ? फिर उसे नया जन्म धारण नहीं करना पड़ता । - प्रवचनसार ( २ / ५६ ) ८० कम्मं पुण्णं पावं, मंदकसाया सच्छा, पुण्यरूप और पाप रूप । कर्म दो प्रकार का है । हेतु स्वच्छ या शुभभाव है और पापकर्म के बन्ध का हेतु भाव है । मन्दकषायी जीव स्वच्छ भाववाले होते हैं तथा तीव्र कषायी जीव अस्वच्छ भाववाले । पुण्यकर्म के बन्ध का अस्वच्छ या अशुभ हेऊ तेसिं च होंति सच्छिदरा । तिव्वकसाया - कार्तिकेयानुप्रेक्षा ( ६० ) होदि दुविहं तु । भाव कम्मं तु ॥ सामान्य की अपेक्षा कर्म एक है और द्रव्य तथा भाव की अपेक्षा से दो है । कर्म पुद्गलों का पिण्ड द्रव्यकर्म और उसमें रहनेवाली शक्ति या उनके निमित्त से जीव में होनेवाले राग-द्वेषरूप विकार भाव - कर्म है । - गोम्मटसार, कर्मकाण्ड ( ६ ) ] कम्मत्तणेण एक्कं, दव्वं भावो त्ति पोग्गलपिंडो दव्वं, तस्सत्ती Jain Education International 2010_03 असच्छा हु ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy