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________________ ६८ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । पुराण महाभारत और हरिवंशमें वर्णित कृष्ण वसुदेवका पिता है । परंतु गुणात्यकी 'बृहत्कथा'की' तरह इसमें सेंकडों ही अवान्तर कथाएं गुम्फित कर दी गई हैं जिनमें प्रायः सब ही जैन तीर्थंकरोंके तथा अन्यान्य चक्रवर्ती आदि शलाका पुरुषोंके एवं अनेक ऋषि, मुनि, विद्याधर, देव, देवी आदिकोंके चरित भी वर्णित हैं । 'वसुदेव हिंडी' की कथाएं प्रायः संक्षेपमें और साररूपमें कही गई हैं । इन कथाओंमेंसे कुछ कथाओंको चुन-चुन कर, पीछेके आचार्योंने छोटे बडे ऐसे अनेक स्वतंत्र कथाग्रंथोंकी रचनाएं की और उन संक्षिप्त कथाओंको ओर भी अधिक पल्लवित किया । 'वसुदेवहिंडी' नामक ग्रन्थ जो वर्तमानमें उपलब्ध है उसकी संकलना संघदास क्षमाश्रमण नामक आचार्यने की है जो विक्रमकी चौथी पांचवीं शताब्दीमें हुए मालूम देते हैं । इसी समयमें विमलसूरि नामक आचार्य हुए जिन्होंने वाल्मीकिके संस्कृत रामायण और व्यासके महाभारतीय हरिवंशके अनुकरणरूप 'पउमचरियं' और 'हरिवंसचरियं' नामक दो खतंत्र एवं सुसंकलित ग्रन्थोंकी प्राकृतमें रचना की, जिनमें ब्राह्मणोंके रामावतार और कृष्णावतारके साथ संबन्ध रखनेवाली पौराणिक कथाओंको, जैन शैलीके ढांचेमें ढाल कर जैनीय रामायण और हरिवंशका सर्जन किया। इसके बाद, फिर अनेक ग्रन्थकारोंने इन्हीं दो कथाओंको लक्ष्य कर, संस्कृत, अपभ्रंश, कन्नड, प्राचीन गूर्जर आदि भाषाओंमें अनेक ग्रन्थोंकी रचनाएं की । कृष्णावतारकी कथाके साथ कौरव पांडवोंकी कथाका तथा जैन तीर्थकर अरिष्टनेमिकी कथाका भी संबन्ध जुडा हुआ है, इसलिये इनकी कथाको लक्ष्य करके 'पांडवचरित' और 'नेमिनाथचरित' नामके भी अनेक खतंत्र कथाग्रन्थ रचे गये । जैन धर्मके पौराण प्रवादानुसार, इस विद्यमान मानवयुगके प्रारंभमें आदि राज्यसंस्थापक और प्रथम धर्मप्रवर्तक इक्ष्वाकुवंशके ऋषभदेव नामक तीर्थकर हुए जो नाभि और मरुदेव नामक युगल कुलकरके पुत्र थे । उस ऋषभदेवने ही विद्यमान मानवजातिमें सबसे प्रथम समाजव्यवहार, राज्यतंत्र और धर्ममार्गकी शिक्षाका प्रवर्तन किया। इससे बहुधा उनको आदिनाथ या युगादि देवके नामसे भी जैनवाङ्मयमें सम्बोधित किया जाता है। उनके सौ पुत्र हुए जिनमें ज्येष्ठ पुत्रका नाम भरत रक्खा गया था । वह भरत इस हमारी आर्यभूमिका सबसे पहला सार्वभौम चक्रवर्ती राजा हुआ इसलिये हमारे इस पृथ्वीखण्डका नाम 'भारतवर्ष' या 'भरतक्षेत्र' ऐसा प्रसिद्ध हुआ । भरतके और और भाईयोंको, इस भरतभूमिके अन्यान्य प्रदेश जागीरीके रूपमें बांट दिये गये जहां उन्होंने अपने खतंत्र नगर बसा कर अपने वंशजोंके लिये राज्य स्थापित किये । पीछेसे ये ही सब राजवंश भिन्न-भिन्न क्षत्रिय राजकुलोंके नामसे प्रसिद्ध हुए । पुराणोंमें वर्णित सूर्यवंशीय और चंद्रवंशीय सब राजकुल उन्हीं ऋषभदेवके पुत्रोंकी सन्तानरूप हैं । इस प्रकारका ऋषभदेवके अवतारका और जैनधर्मके प्रारंभका पौराण वृत्तान्त होनेसे, ऋषभदेवकी कथाने भी जैनवाङ्मयमें विशिष्ट स्थान प्राप्त किया है और इस कथासूत्रको जैन कथाकारोंने बहुत ही विकसित और विस्तृतरूपमें ग्रथित किया है। ऋषभदेव, भरत चक्रवर्ती एवं इनसे संबद्ध ऐसी अनेक अवान्तर कथाओंकी वस्तुको आधार रूपमें रख कर, पिछले जैन विद्वानोंने प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश आदि भाषाओंमें अनेकानेक कथाग्रन्थोंकी रचनाएं कीं । जैन धार्मिक संप्रदायकी मान्यता अनुसार, इस प्रवर्तमान मानवयुगमें जैसे ऋषभदेव सबसे पहले धर्मप्रवर्तक तीर्थकर हुए वैसे सबसे अन्तिम महावीर तीर्थकर हुए । ऋषभदेवसे ले कर महावीर तकके बीचके कालमें, कुल मिलाकर वैसे २४ तीर्थकर हुए, भरत आदि १२ चक्रवर्ती सम्राट् हुए, राम कृष्ण आदि ९ वासुदेव - अर्धचक्रवर्ती, और वैसे ही उनके प्रतिस्पर्धी ९ प्रतिवासुदेव सम्राट् हुए । जैन मान्यतानुसार इस चालू मानव युगमें, भारतवर्षमें इस प्रकार धर्म और राज्यकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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