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________________ ६७ जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन । जिनरत्नाचार्यके इस कथेतिवृत्तके पढनेसे यह तो सुज्ञात होता है कि जिनेश्वर सूरिकी मूल कृति, प्राकृत भाषा साहित्य की एक बहुत सुंदर और उत्तम कोटिकी विशिष्ट रचना थी। जैसा कि गणधरसार्द्धशतक और बृहद्गुर्वावलिके कथनानुसार, पहले सूचित किया गया है (देखो पृ०३२), जिनेश्वर सूरिने इस कथाकी रचना आशापल्ली नामक स्थानमें की थी। यह आशापल्ली गुजरातकी विद्यमान राजधानी अहमदाबादकी जगह पर बसी हुई थी, जिसके अवशेष रूपमें आज भी वहां पर असावल नामका शाखापुर प्रसिद्ध है । शायद जिनेश्वर सूरिके मृत्युके कुछ ही समय बाद, अणहिलपुरके चालुक्य राजा कर्णदेवने इस स्थानको गुजरातकी उपराजधानी बनाया और इसका नाम कर्णावती रखा । यह आशापल्ली, जिनेश्वर सूरिके समयमें भी, भौगोलिक दृष्टिसे, गुजरातके साम्राज्यके यातायातव्यवहारका एवं रक्षणात्मक प्रबन्धका मध्यवर्ती स्थान होकर, व्यापारकी दृष्टिसे भी एक विशिष्ट केन्द्रस्थान था। इसलिये वहां पर जैन समाजका भी एक विशिष्ट वर्ग, जो राज्यसत्ता और व्यापारक्षेत्र- दोनोंमें उच्च स्थान रखता था, अच्छी संख्यामें निवास करता था । जिनेश्वर सूरिने देश-देशान्तरोंमें परिभ्रमण करते हुए किसी समय जब इस आशापल्लीमें आ कर चातुर्मास किया और यहांके वैसे विशिष्ट एवं विचक्षण वर्गवाले श्रावक-समूहको श्रोताके रूपमें देखा, तो उसके उपदेशार्थ, अपनी विशिष्ट प्रतिभाकी प्रौढिमा प्रदर्शित करनेवाली इस 'निर्वाणलीलावती' नामक वैराग्यरसोत्पादक एवं निर्वाणमार्गप्रदर्शक विशाल धर्मकथाकी अभिनव रचना की। जैन कथासाहित्यका कुछ परिचय । जैन धर्मोपदेशकोंकी कथाकथन-प्रणालिका सदैव एक ही पवित्र ध्येय रहा है और वह यह कि उनके कथोपदेश द्वारा श्रोताओंकी शुभ जिज्ञासा जागृत हो और उनकी मनोवृत्ति शुभ कर्मकी प्रवृत्तिमें प्रवृत्त हो । कथाके कहने में और रचनेमें जैसा उच्च आदर्श जैन विद्वानोंका रहा है, वैसा अन्य किसी संप्रदायका नहीं रहा । जैन कथाकार इन धर्मकथाओंके कथनमें और संकलनमें बडे ही सिद्धहस्त प्रमाणित हुए हैं । मनोरंजनके साथ सन्मार्गका सद्बोध करानेवाली इन जैन कथाओंकी तुलनामें, बराबरीका स्थान प्राप्त कर सके, ऐसी कथाएं जैन साहित्यके सिवा अन्य किसी भारतीय धार्मिक साहित्यमें उपलब्ध नहीं है । जैन साहित्य इस प्रकारकी धर्मकथाओंका एक बड़ा भारी भंडारही है। जैन साहित्यकी यह कथाराशि बहुत अधिक विशाल है। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और देश्य भाषाओंमें गुम्फित ऐसी छोटी-बडी सेंकडों नहीं बल्कि हजारों जैन कथाओंसे जैन वाङ्मयका सुविशाल भंडार भरपूर है। इस जैन कथावाङ्मयका इतिहास उतना ही पुरातन है जितना जैन तत्त्वज्ञान और जैन सिद्धान्तका इतिहास है । अनेकानेक कथाएं तो, जैनवाङ्मयका सबसे प्राचीन भाग समझे जानेवाले आगमोंमें ही वर्णित हैं । इन आगमसूचित कथाओंकी वस्तुका आधार ले कर, बादमें होनेवाले आचार्योंने अनेक खतंत्र कथाग्रन्थ रचे और मूल कथावस्तुमें फिर अनेक अवान्तर कथाओंका संयोजन कर इस साहित्यको खूब ही विकसित और विस्तृत बनाया । इन कथाग्रन्थोंमेंसे कुछ तो पुराणोंकी पद्धतिपर रचे हुए हैं और कुछ आख्यायिकाओंकी शैली पर । उपलब्ध ग्रन्थोंमें पुराणपद्धतिपर रचा हुआ सबसे प्राचीन और सबसे बडा कथाग्रन्थ 'वसुदेवहिंडी' नामक है जो प्राकृत भाषामें 'गद्यबहुल' ऐसा आकर कथा ग्रन्थ है । इस ग्रन्थकी कथाके उपक्रमका आधार तो हरिवंश अर्थात् यदुवंशमें उत्पन्न होनेवाला वसुदेव दशार है जो संस्कृत www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only Jain Education International
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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