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________________ | जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन । ६९ दृष्टिसे, सबसे बडे ५४ महापुरुष उत्पन्न हुए । इसलिये इनको शलाका पुरुषकी उपमा दी गई। शीलांक सूरि जैसे आचार्योंने इन ५४ ही शलाका पुरुषोंकी कथाओंको एक संग्रहके रूपमें गुम्फित करनेकी दृष्टिसे 'चउपन्न महापुरिसचरिय' नामक शलाकापुरुषचरित रूप, एक बहुत बडे प्राकृत ग्रंथ की रचना की। इसी प्रकारसे और और आचार्योंने भी इन शलाकापुरुषोंकी कथाओंके संग्रहात्मक छोटे बडे कई चरित्र ग्रंथ बनाये । कुछ आचार्योंने इन शलाकापुरुषोंमेंसे किसी एक महापुरुषके कथासूत्रको अवलंबित कर और फिर उसमें उसके पूर्व भवके वृत्तान्तोंकी सूचक कथाएं एवं वैसी ही अन्य संबन्धोंकी सूचक कथाएं जोड जोड कर, उन उन महापुरुषोंके नामके खतंत्र ऐसे बडे चरित ग्रंथों की भी विशिष्ट रचनाएं करनेका प्रयास किया है । इस प्रकार आदिनाथचरित, सुमतिनाथचरित, पद्मप्रभचरित, चन्द्रप्रभचरित, श्रेयांसचरित, शान्तिनाथचरित, मल्लिनाथचरित, अरिष्टनेमिचरित, पार्श्वनाथचरित, महावीरचरित आदि अनेक तीर्थकरोंके कई प्रकारके स्वतंत्र चरितग्रन्थोंकी रचनाएं निर्मित हुईं। ये सब कथामन्थ पुराण शैलीके हैं । जिस तरह ब्राह्मणोंके पुराणोंमें सूर्य एवं चन्द्र वंशीय आदि राजवंशोंका; वसिष्ठ विश्वामित्र आदि ऋषि मुनियोंके कुलोंका; ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देवताओंके अवतारोंका; एवं इन्द्र, सूर्य, चन्द्र, अग्नि, वायु, लक्ष्मी, सरस्वती, इला आदि अनेकानेक प्रकारके देव-देवियोंके जन्म-जन्मांतरोंका वर्णन किया गया है; उसी तरह इन जैन चरितग्रन्थोंमें जैन मान्यतानुसार कल्पित इक्ष्वाकुवंश, हरिवंश आदि राजवंशीय नृपोंके; ऋषभ आदि धर्मतीर्थप्रवर्तक जिनवरोंके; भरत सगर आदि चक्रवर्तियोंके नमि विनमि आदि विद्याधरोंके; पुण्डरीक आदि यति मुनियोंके; ब्राह्मी सुन्दरी आदि सती साध्वियोंके राम, कृष्ण, रुद्र आदि ब्राह्मण धर्ममें माने जानेवाले ईश्वरावतारीय व्यक्तियोंके एवं सौधमेंन्द्र, चमरेन्द्र आदि देवयोनीय देवताओंके जन्म-जन्मांतरोंका वर्णन किया गया है। इन पौराणिक शैलीके कथाग्रन्थोंसे भिन्न एक आख्यायिकाकी पद्धति पर लिखे गये कथाग्रन्थोंका वर्ग है जो वासवदत्ता, कादंबरी, नलचरित, दशकुमारचरित आदि संस्कृत साहित्यकी सुप्रसिद्ध लौकिक कथाओंके ढंग पर रचा गया है। इन कथाओंमें किसी एक लोक प्रसिद्ध स्त्री अथवा पुरुषकी जीवनघटनाको केन्द्र बना कर, उसके वर्णनको काव्यमय शैलीमें, शृंगार करुण आदि रसोंसे अलंकृत करके, अन्तमें वैराग्य विषयक वस्तुको संकलित किया जाता है । कथाके विस्तारको बढ़ानेकी दृष्टिसे उसमें मुख्य नायक अथवा नायिकाके साथ अनेक उपनायक-उपनायिकाओंके कथावर्णनोंको जोडा जाता है और फिर उन सबके पूर्वजन्म अथवा आगामी जन्मका परस्पर संबन्ध लगा कर, तत्तद् व्यक्तिके किये गये शुभाशुभ कर्मोंके फलका परिणाम दिखाया जाता है और अन्तमें उस कर्मफलके अनुसार, नायक अथवा नायिकाको सद्गति अगर दुर्गतिकी प्राप्ति बतला कर कथा समाप्त की जाती है । इन कथाओंकी रचनाशैली इस ढंगकी होती है कि जिससे श्रोताओंको शंगार आदि भिन्न-भिन्न रसोंका कुछ आस्वाद भी मिलता रहै, रसिक कथावर्णनोंसे. कुछ मनोरंजन भी होता रहै और कर्मोंके शुभाशुभ विपाकोंका परिणाम जान कर सन्मार्गमें प्रवृत्त होनेकी रुचि भी बढती रहै । इस शैलीके कथाग्रन्थोंमें सबसे पहली कथा पादलिप्त सूरिकी 'तरंगवती' अथवा 'तरंगलोला' थी जो दुर्भाग्यसे अब मूल रूपमें उपलब्ध नहीं है । पादलिप्तसूरिकी मूल कथा बहुत बडी थी और वह शृंगारादि विविध रसों एवं काव्यचमत्कृतिद्योतक नाना प्रकारके अलंकारोंसे भरपूर महती १ पिछले कुछ आचार्योने ९ वासुदेवके भ्राता जो बलदेव कहे जाते हैं, उनको भी शलाका पुरुषकी गणनामें सम्मीलित किये हैं और यों ५४ की जगह ६३ शलाकापुरुष बतलाये हैं । पुष्पदन्त नामक महाकविने अपभ्रंश भाषामें 'तिसहिलक्खणमहापुराण' बना कर और हेमचन्दाचार्यने संस्कृतमें 'त्रिशष्टिशलाकापुरुषचरित्र' नामक बड़ा ग्रंथ बनाकर उनमें इन ६३ ही महापुरुषोंकी संकलित कथाएं प्रथित की है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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