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________________ ૨૭ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । कोष, साहित्य, छन्द, अलंकार आदि विषयोंका - अच्छा ज्ञान संपादन कर लिया था। मुमुक्षु और भावुक वृत्तिके होनेके कारण सांसारिक जीवन की ओर इनमें विशेष आसक्ति नहीं उत्पन्न हुई थी और तीर्थयात्रादि द्वारा ये अपना निःस्पृह जीवन व्यतीत करना चाहते थे । ऐसी स्थितिमें उनको जैनाचार्य वर्द्धमानसूरिका कहीं परिचय हो गया । कुछ विशेष संसर्गमें आनेसे, इन भाईयोंकी उन पर उनके तप, त्याग, विरक्ति, विद्याव्यासंग और लोकों पर विशिष्ट प्रकारके प्रभावको देख कर, विशेष श्रद्धा उत्पन्न हुई और अन्तमें इन्होंने उनके पास जैन यतित्वकी दीक्षा ग्रहण की । जिसने भी इन्हींके अनुकरणमें जैन साध्वीव्रतकी दीक्षा शायद इनकी एक विदुषी बहिन भी थी ले ली थी । 1 इनके गुरु बर्द्धमान सूरि, मूल दिल्लीके समीप - प्रदेश के अभोहर नगर में रहनेवाले चैत्यवासी आचार्यके शिष्य थे । ये आचार्य मठपति थे और बहुत बडी संपत्ति के स्वामी थे । वर्द्धमानको, जो प्रकृति से विरक्त स्वभाव के थे, अपने गुरुकी संपत्ति पर कोई आसक्ति नहीं उत्पन्न हुई और जैन शास्त्रोंका विशेष अध्ययन करने पर उनको वह संपत्ति त्याज्य मालूम दी । गुरुके बहुत कुछ समझाने पर भी उन्होंने मठपति होना पसन्द नहीं किया और विरक्त हो कर उद्योतनाचार्य नामक एक तपखी और निःसंगविहारी आचार्य के पास उपसंपदा ले कर उनके अन्तेवासी बन गये । वर्द्धमान सूरि जैसे विरक्त थे, वैसे विद्वान् भी थे । जैन शास्त्रोंका अध्ययन उनका खूब गहरा था । जैन यतियोंमें चैत्यवासके कारण बढे हुए तत्कालीन शिथिलाचारको देख कर, उनको उद्वेग होता था और उसके प्रतिकार के लिये वे यथाशक्ति उपदेश देते रहते थे और सर्वत्र निःसंग और निर्मम भावसे विचरा करते थे । उनके ऐसे त्यागमय जीवन के बढते हुए प्रभावको देख कर, तथा उसके कारण चैत्यवासके विरुद्ध लोगोंके मनमें उत्पन्न होते हुए भावोंको जान कर कुछ चैत्यवासी आचार्योंने उनका बहिष्कार करना और उन्हें कहीं अच्छे स्थानादिमें न ठहरने देने आदिका प्रयत्न करना शुरू किया । लेकिन धीरे धीरे वर्द्धमान सूरिका प्रभाव अधिक बढ़ता गया और जब जिनेश्वर और बुद्धिसागर जैसे बड़े प्रतिभाशाली और पुरुषार्थी शिष्योंका उन्हें सहयोग मिल गया, तब उनके विचारोंके प्रसारको और भी अधिक वेग मिला । इस पूर्व भूमिका के साथ वे गुजरातकी राजधानी अणहिलपुरमें पहुंचे थे, जो उस समय जैसा किं हमने पहले सूचित किया है, सारे भारतवर्ष में एक बहुत ही प्रसिद्ध और समृद्धिका केन्द्र होनेके साथ जैन धर्मका भी बडा भारी केन्द्रस्थान था । अणहिलपुरके प्रसिद्ध जैन मन्दिर और जैनाचार्य । अणहिलपुरकी राजसत्ता के मुख्य सूत्रधार उस समय प्रायः जैन ही थे । आबू, चन्द्रावती, आरासण आदि स्थानों में अद्भुत शिल्पकलाके निदर्शक ऐसे भव्य जैन मन्दिरोंका निर्माता विमल शाह गुजरातके साम्राज्यका सबसे बडा दंडनायक और राजनीतिकुशल मुत्सद्दी था । उसका बडा भाई वीरदेव राज्यका सबसे बडा प्रधान था । और भी ऐसे अनेक राजमान्य और प्रजानायक सेंकडों ही धनाढ्य जैन वहाँ वसते थे जिनका प्रभाव, न केवल अणहिलपुर - ही के राज्यमें, परंतु उसके आस-पास के मालवा, मारवाड, मेवाड, महाराष्ट्र आदिके सीमासमीपस्थ सभी देशोंमें, पडता था । उस अणहिलपुरमें, जैन समाजकी इस प्रकारकी बहुलता और प्रभुता होनेके सबबसे वहां पर जैन मन्दिरोंकी संख्या भी बहुत बडी थी और जैन यतियोंका समूह भी बडे प्रमाणमें रहा करता था । इन मन्दिरोंमें सबसे बडा मन्दिर पंचासर पार्श्वनाथका था जिसकी स्थापना अणहिलपुर के राजमहल की स्थापना ही के साथ, एक ही मुहूर्तमें " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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