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________________ ३७ कथाओंके सारांशका तारण । जैन धर्मके सिद्धान्त समझाये और उनमेंसे एक भाईकी मस्तककी शिखामें मरी हुई मछली लटक रही थी उसे दिखा कर, केवल ऐसे बाह्य स्नानाचारकी शुद्धिका मिथ्यात्व बतलाया । सूरिके इस उपदेशसे प्रतिबुद्ध हो कर उन्होंने उनके पास फिर जैनयतित्वकी दीक्षा ग्रहण की । इत्यादि । ___ इसके आगेका वर्णन फिर उक्त अन्यान्य प्रबन्धोंके जैसा ही दिया गया है और उसमें यह दिखलाया गया है कि किस तरह उन्होंने अणहिलपुरमें चैत्यवासियोंके साथ वाद-विवाद कर अपना पक्ष स्थापित किया । इत्यादि । कथाओंके सारांशका तारण । इस प्रकार ऊपर हमने जिनेश्वर सूरिके चरितका वर्णन करने वाले जिन प्रबन्धों-निबन्धोंका सार उद्धृत किया है, उससे उनके चरितके दो भाग दिखाई पड़ते हैं - एक उनकी पूर्वावस्थाका और दूसरा दीक्षित होनेके बादका । पूर्वावस्थाके चरितके सूचक प्रभावकचरित आदि जिन भिन्न भिन्न ३ आधारोंका हमने सार दिया है उससे ज्ञात होता है कि वे परस्पर विरोधी हो कर असंबद्धसे प्रतीत होते हैं । इनमें सोमतिलकसूरिकथित धनपालकथावाला जो उल्लेख है वह तो सर्वथा कल्पित ही समझना चाहिये । क्यों कि धनपालने खयं अपनी प्रसिद्ध कथा-कृति 'तिलकमञ्जरी'में अपने गुरुका नाम महेन्द्रसूरि सूचित किया है और प्रभावकचरितमें भी उसका यथेष्ट प्रमाणभूत वर्णन मिलता है । इसलिये धनपाल और शोभन मुनिका जिनेश्वर सूरिको मिलना और उनके पास दीक्षित होना आदि सब कल्पित हैं । मालूम देता है सोमतिलक सूरिने धनपालकी कथा और जिनेश्वर सूरिकी कथा, जो दोनों भिन्न भिन्न है, उनको एकमें मिलाकर इन दोनों कथाओंका परस्पर संबन्ध जोड दिया है जो सर्वथा अनैतिहासिक है। ___ वृद्धाचार्य प्रबन्धावलिमें, जिनेश्वरसूरिकी सिद्धपुरमें सरस्वतीके किनारे वर्धमान सूरिसे भेंट हो जानेकी, जो कथा दी गई है वह भी वैसी ही काल्पनिक समझनी चाहिये । - प्रभावकचरितकी कथाका मूलाधार क्या होगा सो ज्ञात नहीं होता । इसमें जिस ढंगसे कथाका वर्णन दिया है उससे उसका असंबद्ध होना तो नहीं प्रतीत होता । दूसरी बात यह है कि प्रभावकचरितकार बहुत कुछ आधारभूत बातों-ही-का प्रायः वर्णन करते हैं । उन्होंने अपने ग्रन्थमें यह स्पष्ट ही निर्देश कर दिया है कि इस ग्रन्थमें जो कुछ उन्होंने कथन किया है उसका आधार या तो पूर्व लिखित प्रबन्धादि है या वैसी पुरानी बातोंका ज्ञान रखने वाले विश्वस्त वृद्धजन हैं । इसमेंसे जिनेश्वरकी कथाके लिये उनको क्या आधार मिला था इसके जाननेका कोई उपाय नहीं है । संभव है वृद्धपरंपरा ही इसका आधार हो । क्यों कि यदि कोई लिखित प्रबन्धादि आधारभूत होता तो उसका सूचन हमें उक्त सुमतिगणि या जिनपालोपाध्यायके प्रबन्धोंमें अवश्य मिलता । इन दोनोंने अपने निबन्धोंमें इस विषयका कुछ भी सूचन नहीं किया है इससे ज्ञात होता है कि जिनेश्वरकी पूर्वावस्थाके विषयमें कुछ विश्वस्त एवं आधारभूत वार्ता उनको नहीं मिली थी। ऐसा न होता तो वे अपने निबन्धोंमें इसका सूचन किये विना कैसे चुप रह सकते थे । क्यों कि उनको तो इसके उल्लेख करनेका सबसे अधिक आवश्यक और उपयुक्त प्रसंग प्राप्त था और इसके उल्लेख विना उनका चरितवर्णन अपूर्ण ही दिखाई देता है । ऐसी स्थितिमें प्रभावकचरितके कथनको कुछ संभवनीय मानना हो तो माना जा सकता है। इन सब प्रबन्धोंके आधारसे इतनी बात तो निश्चित होती है कि जिनेश्वर और बुद्धिसागर ये दोनों सहोदर भाई थे और पूर्वावस्थामें जातिसे ब्राह्मण थे । मध्यदेश - शायद बनारस इनका मूल वतन था । मामणपुत्र होनेसे और बहुत बुद्धिमान् होनेसे पूर्वावस्थामें इन्होंने संस्कृत वाकायका - व्याकरण, काव्य, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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