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________________ अणहिलपुरके प्रसिद्ध जैन मन्दिर और जैनाचार्य । हुई थी । अणहिलपुरके साम्राज्यका मूल स्थापक पुरुष, चावडा वंशीय वनराज नृपति था, जो अपनी बाल्यावस्थामें, पंचासर गांवके जैन मन्दिरमें वसनेवाले, नागेन्द्र गच्छीय आचार्य शीलगुण सूरि एवं उनके पट्टधर शिष्य आचार्य देवचन्द्र सूरिके संरक्षणमें पला था । अणहिलपुरकी स्थापनाके समय उसने अपने उपकारी आचार्यको वहां बुला कर, उनके आशीर्वाद पूर्वक, अपना राज्याभिषेक कराया और उनको अपने गुरुके रूपमें स्थापित किया। उन्होंने पंचासर गांवसे अपने अभीष्टदेव पार्श्वनाथकी मूर्तिको वहां मंगवाया और वनराजके बनाये हुए उस नवीन जैन मन्दिरमें उसको प्रतिष्ठित किया । आचार्यने उस मन्दिरका नामकरण वनराजके नामस्मरणके साथ 'वनराज-विहार' ऐसा किया, लेकिन लोकोंमें अधिकतर वह पंचासर पार्श्वनाथके नामसे ही प्रसिद्ध रहा । इस वनराज-विहारका सर्व प्रबन्ध उक्त आचार्य देवचन्द्रसूरिकी शिष्यसन्ततिके अधिकारमें चलता था जो नागेन्द्रगच्छीय कहलाते थे । जिनेश्वर सूरिके समयमै इस गच्छके प्रधान आचार्य द्रोणाचार्य और उनके शिष्य महाकवि सूराचार्य थे । वनराज-विहारके अतिरिक्त अणहिलपुरमें और भी कई बडे जैन मन्दिर थे जो अन्यान्य राजकीय एवं धनिक जैन श्रावकोंके बनाये हुए थे। इनमें महामात्य संपकका बनाया हुआ एक थारापद्रीय महाचैत्य था जिसके अधिष्ठाता वादिवेताल शान्तिसूरि थे जो अपने समयमें जैन संप्रदायके सबसे बड़े वादी एवं तर्कशास्त्र और साहित्यविद्याके पारगामी विद्वान् थे । ये द्रोणाचार्य पूर्वावस्थामें जातिके क्षत्रिय थे और गूर्जरेश्वर महाराजाधिराज भीमदेव चालुक्यके मामा थे। शायद, बचपन-ही-में इन्होंने जैन यतित्वकी दीक्षा ले ली थी और अनेक शास्त्रोंका अध्ययन कर ये बडे समर्थ विद्वान् बने थे। चालुक्य राजकुमार भीमदेवकी संपूर्ण शास्त्रशिक्षा इन्हींके पास हुई थी, इसलिये ये राज्यमें राजगुरुके रूपमें सम्मानित होते थे । सूराचार्य जो इनके शिष्यके रूपमें प्रख्यात हुए, वास्तवमें इन्हींके भतीजे थे। इनके भ्राता संग्रामसिंहकी अकाल-ही-में मृत्यु हो जानेके कारण, इनकी भोजाईने, अपने इकलोते पुत्रको, जिसका मूल नाम महीपाल था, शिक्षा-दीक्षा देनेके लिये इन्हींको समर्पित कर दिया था । द्रोणाचार्यने इसको सब प्रकारके शास्त्रोंकी शिक्षा दे कर बहुत निपुण बनाया। फिर इसने स्नेहवश हो कर अपने पितृव्य एवं गुरुको छोड कर गृहस्थावासमें जाना पसन्द नहीं किया और यतिदीक्षा ले कर उनका त्यागी शिष्य बन गया । पीछेसे पंचासरके मन्दिरके मुख्य अधिष्ठाता आचार्यके रूपमें ये प्रतिष्ठित हुए तथा महाराजाधिराज भीमदेवकी राजसभाके सबसे अग्रणी विद्वान्के रूपमें इन्होंने सारे देशमें ख्याति प्राप्त की। मालवाके परमार सम्राटू महाराजाधिराज भोजदेवकी राजसभामें जा कर इन्होंने अपने पाण्डित्यका अद्भुत कौशल बताया और वहां पर गूर्जरविद्वत्ताकी धाक बिठा कर, भोज जैसे महाविद्वान् और महामति नृपतिको भी चकित किया । ऐसा ही प्रसिद्ध एक और चैत्य था जिसके अधिष्ठाता गोविन्दसूरि नामक आचार्य थे । ये आचार्य भी बहुत बडे विद्वान् थे और राजसम्मान्य पुरुष थे। भीमदेवके उत्तराधिकारी महाराज कर्णदेवके बालमित्र कहे जाते थे । सूराचार्यने साहित्यिक विद्याका विशेष अध्ययन इन्हींके पास किया था। सिद्धराजके समयमें जिन्होंने वादिसिंह नामक एक विदेशी महाविद्वान्को शास्त्रार्थमें पराजित किया था तथा जो सिद्धराजके विशिष्ट मित्र समझे जाते थे उन वीराचार्यके भी कलागुरु ये ही गोविन्दसूरि थे। इन वीराचार्यके गुरुओंका अधिकारमुक्त भी एक ऐसा ही बडी प्रसिद्धिवाला चैत्य था जो भावाचार्य-चैत्य के नामसे ख्यात था । सिद्धराजने मालवविजय करनेके समय जो विजयपताका हस्तगत की थी उसको ला कर इसी भावाचार्य चैत्यके बलानकके शिखर पर उत्तंभित की थी। इस भावाचार्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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