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________________ जिनेश्वर सूरिके चरितका सार । २९ निवासी यतिजन शास्त्र - विचार करना चाहते हैं । ऐसा विचार न्यायवादी राजाके समक्ष ही किया हुआ शोभा देता है । इसलिये आप श्रीमान् कृपा करके उस समय वहां पर प्रत्यक्ष रूपसे उपस्थित रहनेका अनुग्रह करें ।' राजाने कहा - 'यह युक्त ही है । हम वैसा करेंगे ।' बाद में निश्चित किये गये दिनको उसी मन्दिरमें श्रीसूराचार्य आदि ८४ आचार्य अपनी अपनी समृद्धिके अनुरूप सज्जित हो कर, वहां पर आ कर बैठे । प्रधानोंने राजाको भी उचित समय बुला भेजा, सो वह भी वहां आ कर बैठ गया । फिर राजाने पुरोहितसे कहा - 'तुम जा कर अपने सम्मत मुनियों को बुला लाओ ।' वह जा कर वर्द्धमान सूरिसे बोला - 'सभी मुनिगण सपरिवार वहां पर आ कर बैठ गये हैं । श्रीदुर्लभराज भी आ गये हैं । अब आपके आगमनकी प्रतीक्षा की जा रही है । राजाने सब आचार्योंको तांबूल देकर सम्मानित किया है ।' पुरोहित के मुखसे यह वृत्तान्त सुन कर वर्द्धमानाचार्य अपने ईष्ट देव गुरुका मनमें ध्यान कर तथा उनका स्मरण कर, पण्डित जिनेश्वर आदि कुछ विद्वान् शिष्यों के साथ, शुभ शकुन पूर्वक चले और देवमन्दिरमें पहुंचे । राजाके बताये हुए स्थान पर पण्डित जिनेश्वरने आसन बिछा दिया जिस पर वे बैठ गये । जिनेश्वर भी उनके चरणके समीप ही अपना आसन डाल कर बैठ गये । राजाने उनको भी फिर तांबूल देना चाहा । तब उन्होंने कहा - 'राजन् ! साधुओंको तांबूलभक्षणका निषेध है। शास्त्रोंमें कहा है कि' - ब्रह्मचारी यतियोंको और विधवा स्त्रियोंको तांबूलका भक्षण करना मानों गोमांसका भक्षण करने जैसा है ।' इससे विवेकी लोग जो वहां उपस्थित थे उनको अच्छी प्रसन्नता हुई । 1 फिर वर्द्धमानाचार्यने कहा - 'हमारी ओरसे ये पण्डित जिनेश्वर जो कुछ उत्तर- प्रत्युत्तर करेंगे वह हमें - स्वीकृत है, ऐसा आप सब समझें ।' सबने उसका स्वीकार किया । इसके बाद सूराचार्य, जो उन सब चैत्यवासी यतिजनोंके मुख्य नायक थे, उन्होंने विचार उपस्थित करते हुए कहा - 'जो मुनि वसति अर्थात् गृहस्थके मकानमें रहते हैं वे प्रायः षड्दर्शन - बाह्य समझने चाहिये । षड् दर्शन में क्षपणक ( दिगंबर ) जटी ( जटाधारी) आदि सब आ जाते हैं ।' इसका निर्णय देनेके लिये उन्होंने 'नूतनवादस्थल' पुस्तिकाकोपढनेके लिये अपने हाथमें लिया । इसको सुन- देख कर जिनेश्वरने बीच-ही-में यह प्रश्न उपस्थित किया कि महाराज दुर्लभदेव ! आपके यहांके लोगोंमें क्या पूर्व पुरुषोंकी चलाई हुई पुरातन नीतिका प्रवर्तन हैं या आधुनिक पुरुषोंकी चलाई दुई कोई नवीन नीतिका प्रचार है ?' राजाने उत्तरमें कहा - 'हमारे देशमें अपने पूर्वजोंकी निश्चित की हुई राजनीतिका ही प्रचलन है, दूसरीका नहीं । तब जिनेश्वरने फिर कहा - 'महाराज ! हमारे मतमें भी, अपने पूर्वपुरुष गणधर और चतुर्दशपूर्वधर आदि जो हो गये हैं उन्हीं का कहा हुआ मार्ग प्रमाण माना जाता है, दूसरा नहीं ।' तब राजाने कहा"यह तो ठीक ही है ।' तब फिर जिनेश्वरने कहा - 'महाराज ! हम दूर देशसे यहां पर आये हैं । पूर्व पुरुषों के बनाये हुए ग्रन्थ आदि हम अपने साथ नहीं लाये हैं । इसलिये आप इनके मठमेंसे शास्त्रोंके गट्ठड मंगवाने की व्यवस्था करें जिससे उनके आधार पर मार्ग-अमार्गका निश्चय किया जाय । राजाने उन स्थानस्थित आचार्योंको उद्देश्य करके कहा - 'ये ठीक कहते हैं । आप लोग अपने स्थान पर संदेशा भेज दें जिससे मेरे राजकर्मचारी जा कर उन पुस्तकोंके गट्ठडको यहां पर ले आवें ।' उन्होंने मनमें समझ लिया कि Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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