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________________ २८ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । लिये मेरे आदमी आपके साथ अगुआ हो कर ब्राह्मणोंके घरों पर ले जाया करेंगे । इससे भिक्षाके मिलने में भी आपको कोई कष्ट नहीं होगा ।' बादमें वे वहां पर आ कर ठहर गये । अब पाटन नगरके लोगोंमें यह बात फैली कि कोई वसतिनिवासी यतियोंका एक समुदाय शहरमें आया है । जब यह बात चैत्यवासी यतियोंके सुननेमें आई तो उनको लगा कि यह घटना तो अच्छी नहीं है । इससे हमको हानि होगी । अतः उन्होंने सोचा कि इस ऊगते हुए व्याधिका अभी ही उच्छेद कर देना अच्छा है 1 उन यतिजनोंके पास शहरके बहुतसे अधिकारियोंके पुत्र पढनेके लिये आया करते थे । उनको कुछ बतासे आदि दे कर खुश कर लिये गये और फिर उनसे कहा कि - 'तुम सब जगह यह बात फैलाओ कि शहरमें यतिजनोंके रूपमें कितनेक ऐसे लोग बहारसे आये हैं जो महाराज दुर्लभराजके राज्यकी गुप्त बातें जाननेके लिये आये हुए किसी राज्यके गुप्तचरसे मालूम देते हैं ।' थोडे ही समय में, यह बात सारे शहरमें फैलती हुई राजसभा में भी जा पहुंची । राजाने सुन कर अपने निकट जनोंसे कहा, कि ऐसे कहां के विदेशी गुप्तचर यहां आये हैं और उनको किसने आश्रय दिया है ? तब किसीने कहा कि - 'महाराज ! आपके गुरु राजपुरोहितने ही तो इनको अपने मकान पर ठहराया है ।' राजाने पुरोहितसे पूछा - 'तुमने इन गुप्तचरोंको किसलिये अपना स्थान दिया है ? पुरोहितने कहा - 'महाराज ! किसने इनपर ऐसा दोषारोपण लगाया है ? | यह सर्वथा मिथ्यादोष है । यदि कोई इसको सिद्ध कर दे तो मैं उसको एक लाख पारुत्थ ( उस समय गुजरातमें चलने वाला सोनेका शिक्का ) देने की घोषणा करता हूं। मैं अपनी यह पिछौडी इसके लिये यहां डालता हूं - जिस किसीको हिम्मत हो वह इसे छुए।' पर वैसा करनेकी किसीकी हिम्मत नहीं हुई । फिर पुरोहितने राजासे कहा - 'महाराज ! मेरे स्थान पर जो साधुजन आ कर ठहरे हैं वे तो साक्षात् धर्मकी मूर्ति दिखाई दे रहे हैं । उनमें ऐसा कोई दोष मैं नहीं देख रहा हूं ।' I तब इस बात को सुन कर सूराचार्य आदि सब चैत्यवासियोंने मिल कर सोचा-वाद-विवाद करके इन नवागन्तुक यतियोंको पराजित करना चाहिये और इस तरह इनको शहरमेंसे नीकलवाना चाहिये । उन्होंने अपना यह विचार पुरोहितको कहलाया और सूचित कराया कि 'हम लोग आपके स्थान पर ठहरे हुए यतिजनों के साथ शास्त्रार्थ करना चाहते हैं ।' पुरोहितने उनसे कहलाया कि 'मैं उनको पूछ कर इसका उत्तर दूंगा । फिर उसने अपने मकान पर जा कर उन मुनियोंसे कहा - ' विपक्षी लोग आपके साथ शास्त्रविचार करना चाहते हैं ।' तब उन्होंने कहा - 'ठीक ही है । इसमें डरनेकी कोई बात नहीं है । परंतु उनसे यह कहलाइये कि - यदि वे हमसे शास्त्रविषयक वाद-विवाद करना चाहते हैं तो महाराज दुर्लभराजके समक्ष, जहां वे कहेंगे वहां, हम विचार करने को तैयार हैं ।' यह उत्तर सुन कर उन चैत्यवासियोंने सोचा - कोई हर्ज नहीं है । राजाके समक्ष ही विचार हो । 1 सब अधिकारी लोग तो हमारे ही हैं। इससे उनकी तरफसे किसी प्रकारके भयकी कोई चिंता हमें नहीं है । फिर उन्होंने तदनुकूल दिनका निश्चय कर सबके सामने प्रकट किया कि अमुक दिनको पंचासरके बड़े मन्दिरमें शास्त्रविचार किया जायगा । पुरोहितने भी एकान्तमें जा कर राजासे निवेदन किया कि 'आगन्तुक मुनियोंके साथ शहरके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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