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________________ ३० कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । उसमेंसे तो इन्हींका पक्ष सिद्ध होगा । इसलिये वे मौन रहे । राजाने अपने नोकरोंको भेजा और कहा , कि शीघ्र ही पुस्तक यहां पर ला कर हाजर करो । तदनुसार वे शीघ्र ही वहां लाये गये । ___ पुस्तकोंके आते ही सद्भाग्यसे जिनेश्वर सूरिके हाथमें सबसे पहले दशवैकालिक सूत्र नामक ग्रन्थ आ गया । उसको खोल कर उन्होंने उसमेंकी यह गाथा पढी ___अन्नटुं पगडं लेणं भइज्ज सयणासणं । उच्चारभूमिसंपन्नं इत्थीपसुविवज्जियं ॥ साधुओंको कैसी वसतिमें ठहरना चाहिये इसका वर्णन इस गाथामें किया है । इसका अर्थ समझाते हुए जिनेश्वरने कहा- ऐसी वसतिमें साधुओंके ठहरनेका शास्त्रोंमें विधान है न कि देवमन्दिरोंमें । सुन कर राजाने मनमें समझ लिया, कि इनका यह कथन युक्तियुक्त मालूम देता है । उन अन्यान्य सब अधिकारियोंने भी समझ लिया कि हमारे गुरु निरुत्तर हो गये हैं । फिर भी वे सब अधिकारी एक दूसरेको कहने लगे, कि ये हमारे गुरु हैं, ये हमारे गुरु हैं- इत्यादि । उन्होंने सोचा, ऐसा कहनेसे राजा समझेगा कि जो हमारे गुरु हैं वे मान्य पुरुष हैं; अतः उनके विरुद्ध वह कुछ अभिप्राय नहीं प्रकट करना चाहेगा। परंतु राजा तो न्यायवादी था इसलिये उसने सब कुछ सत्य समझ लिया था । इतनेमें जिनेश्वर सूरिने कहा- 'महाराज ! देखिये तो सही इनमेंसे कोई तो मंत्रीके गुरु हैं, कोई श्रीकरणाध्यक्षके गुरु हैं और कोई पटवोंके गुरु हैं । इस तरह यहां पर सब कोई सबके संबन्धी दिखाई दे रहे हैं । लेकिन हमारा कोई संबन्धी नहीं दिखाई देता ।' तब हंस कर राजाने कहा- 'आप हमारे संबन्धी है - हमारे गुरु हैं।' राजाके मुखसे ये शब्द सुन कर वे सब आचार्य खिन्नमनस्क हो गये । फिर राजा व्यंग्य करते हुए बोला- 'ये सब अधिकारियोंके गुरु इस तरह बडी बडी गद्दियों पर बैठे हुए हैं तो फिर हमारे गुरु क्यों इस प्रकार नीचे आसन पर बैठे हुए हैं ?' इस पर जिनेश्वरने कहा 'महाराज ! साधुओंको गद्दी पर बैठना शास्त्रमें निषिद्ध है। और फिर उसके समर्थनमें उन्होंने कितनेक शास्त्रके श्लोक कह सुनाये । राजाने पूछा - 'आप लोगोंके ठहरनेके स्थानका क्या प्रवन्ध हुआ है ?' तो जिनेश्वरने उत्तरमें कहा- 'यहां विपक्षियोंके ऐसे प्राबल्यमें हमें कहां ठहरने की खतंत्र जगह मिल सकती है। हम तो वहीं पुरोहितजीके आश्रयमें ठहरे हुए हैं।' सुन कर राजाने आज्ञा दी कि करडीहट्टीमें जो नावारिसका एक बडा मकान पडा है वह इन मुनियोंको ठहरनेके लिये दे दिया जाय । राजाने फिर पूछा- 'आप लोगोंके भोजनकी क्या व्यवस्था है ?' तो इसके उत्तरमें भी जिनेश्वरने वैसी ही दुर्लभता बताई । फिर राजाने पूछा- 'आप सब कितने साधु हैं ?' जिनेश्वर – 'अठारह ।' राजा- 'अहो एक हाथीके पिंडसे सब तृप्त हो जायेंगे।' जिनेश्वरने कहा- 'महाराज ! हम मुनियोंको राजघरानेका अन्न लेना निषिद्ध है ।' राजा- 'अच्छी बात है, मेरे आदमियोंके द्वारा आपको भिक्षा सुलभ हो जायगी।' ___ इस प्रकार शास्त्रविचारमें जिनेश्वर सूरिके पक्षका समर्थन होनेसे राजाने उनको सत्कृत किया और फिर वे राजसम्मानके साथ उस राजप्रदत्त वसति (उपाश्रय )में जा कर स्थिर भावसे रहने लगे; और इस प्रकार, पहले पहल, गुजरातमें 'वसतिवास की स्थापना हुई। इस प्रकार, जिनेश्वर सूरिको पाटनमेंसे बहार नीकाल देनेके लिये जो दो प्रयत्न किये गये वे दोनों निष्फल हो गये । तब उन चैत्यवासियोंने एक और उपाय सोचा । वे जानते थे कि राजा राणीका बडा वशवर्ती है - वह जो कुछ कहती है सो बह करता है । अतः उन्होंने राणीको प्रसन्न करनेके लिये एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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