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________________ २७ जिनेश्वर सूरिके चरितका सार। २. इस प्रसंगमें, एक दफह पण्डित जिनेश्वर गणीने इनसे विज्ञप्ति की कि- 'भगवन् ! हमने जो यह जैन शास्त्रोंका परिज्ञान प्राप्त किया है उसका क्या फल है यदि कहीं जा कर इसका प्रकाश न किया जाय । सुना जाता है कि, गुजरात देश जो बहुत विशाल है, चैत्यवासी आचार्योंसे व्याप्त है । अतः हमें उधर जा कर शुद्धाचारका उपदेश करना चाहिये । वर्द्धमानाचार्यने जिनेश्वरके ये विचार सुन कर वैसा करनेके लिये अपनी सम्मति प्रकट की। फिर अच्छे शकुन प्राप्त कर, उधरसे एक भामह नामक सेठका बडा भारी व्यापारी संघ आ रहा था उसके साथ, अपने १८ शिष्यों सहित वर्द्धमान सूरिने गुजरातकी ओर प्रस्थान किया। ___ क्रमसे चलते हुए वे मारवाडके पाली नामक स्थान पर पहुंचे। वहां पर इनकी सोमध्वज नामक एक जटाधरसे भेंट हो गई जो बडा विद्वान् और ख्यातिमान् पुरुष था। उसके साथ ज्ञानगोष्ठी करते हुए जिनेश्वर गणीको बडा आनन्द आया । जटाधर भी इनके पाण्डित्यसे बहुत प्रसन्न हुआ और उसने इनकी अच्छी भक्ति की। वहांसे फिर उसी संघके साथ चलते हुए क्रमसे अणहिलपुर पहुंचे । उस समयमें वहां पर न कोई ऐसा उपाश्रय था जहां ये ठहर सके न कोई ऐसा श्रावक भक्त ही था जो इनको ठहरनेका स्थान दे सके । इन्होंने अपना मुकाम पहले शहरके कोटके आश्रयमें कहीं किसी खुल्ली पडशालमें डाला । वहां पर घंटे दो घंटे बैठे रहने पर सूर्यका ताप आ गया और इससे ये सब धूपमें सिकने लगे। ___ तब जिनेश्वर पण्डितने कहा कि- 'गुरुमहाराज! इस तरह बैठे रहनेसे क्या होगा?' गुरुजीने कहा- 'तो फिर क्या किया जाय ?' जिनेश्वर बोले 'यदि आपकी आज्ञा हो तो वह सामने जो बडासा मकान दिखाई देता है, वहां मैं जाऊं और देखू कि कहीं हमें कोई आश्रय मिल सकता है या नहीं ? गुरुजीने कहा- 'अच्छी बात है, जाओ।' फिर गुरुजीके चरणको नमस्कार करके जिनेश्वर उस मकान पर पहुंचे। वह बडा मकान नृपति दुर्लभराजके राजपुरोहित का था। उस समय पुरोहित स्नानाभ्यंगन करा रहा था । जिनेश्वरने एक सुन्दर भाववाला संस्कृत श्लोक बना कर उसको आशीर्वाद दिया । उसे सुन कर पुरोहित खुश हुआ । बोला कोई विचक्षण व्रती मालूम देता है । पुरोहितके मकानके अन्दरके भागमें बहुतसे छात्र वेदपाठ कर रहे थे । इनके पाठमें कहीं कहीं अशुद्ध उच्चारण सुनाई दिया । तब जिनेश्वरने कहा- 'यह पाठोच्चार ठीक नहीं है । ऐसा उच्चार करना चाहिये। यह सुन कर पुरोहितने कहा- 'अहो! शूद्रोंको वेदपाठ करनेका अधिकार नहीं है । इसके उत्तरमें जिनेश्वरने कहा- 'हम शूद्र नहीं है। सूत्र और अर्थ दोनों ही दृष्टिसे हम चतुर्वेदी ब्राह्मण हैं। ___ पुरोहित सुन कर संतुष्ट हुआ । बोला- 'किस देशसे आ रहे हो ?' जिनेश्वर- 'दिल्लीकी तरफसे । पुरो० 'कहां पर ठहरे हुए हो?' जिनेश्वर- 'शूल्कशाला ( दाणचौकी) के दालानमें । हम मय अपने गुरुके, सब १८ यति हैं । यहां का सब यतिगण हमारा विरोधी होनेसे हमें कहीं कोई उतरनेकी जगह नहीं दे रहा है। पुरोहितने कहा- 'मेरे उस चतुःशालवाले घरमें एक पडदा लगा कर, एक पडशालमें आप लोग ठहर सकते हैं। उधरके एक दरवाजेसे बहार जा-आ सकते हैं । आइये और सुखसे रहिये । भिक्षाके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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