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________________ २६ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । हुए मालवाकी धारा नगरीमें गये और वहां महाधर नामक सेठ और उनकी पत्नी धनदेवीके पुत्र अभयकुमारको दीक्षित किया । अभयकुमार बहुत बुद्धिशाली, अत्यंत तेजखी एवं क्रियानिष्ठ यतिपुंगवके रूपमें प्रसिद्धि प्राप्त करने लगे । इससे फिर जिनेश्वर सूरिने अपने गुरु वर्द्धमान सूरिकी आज्ञासे इनको आचार्यपद पर प्रतिष्ठित किया। - इसके बाद, फिर किस तरह अभयदेव सूरिने नव अंग सूत्रोंकी व्याख्याएं की तथा स्थंभनपार्श्वनाथकी मूर्तिका प्रकटन किया इत्यादि अभयदेवके जीवनसे संबद्ध बातोंका वर्णन दिया गया है जिसका उद्धरण करना हमें प्रस्तुत प्रकरणमें उद्दिष्ट नहीं है। अन्तमें इतना ही सूचित किया गया है कि बुद्धिसागराचार्यने ८ हजार श्लोकप्रमाण बुद्धिसागर नामक व्याकरण ग्रन्थकी रचना की और इस तरह ये दोनों भ्राता अपने अपने आयुष्यके अन्तमें समाधिपूर्वक मृत्यु प्राप्त कर दिवंगतिको प्राप्त हुए । ६. जिनेश्वर सूरिके चरितका सार । गणधरसार्द्धशतक वृत्ति तथा बृहद्गुर्वावलिके वर्णनका सार भाग । अब हम यहां पर, उक्त गणधरसार्द्धशतक वृत्तिगत सुमतिगणिलिखित तथा बृहद्गुर्वावलिके अन्तर्गत जिनपाललिखित जिनेश्वर सूरिके चरित का सार देते हैं। जैसा कि हमने ऊपर सूचित किया है, ये दोनों चरित्रवर्णन प्रायः एकसे ही है - एक ही प्रकारकी शब्दरचनामें संकलित है । चरितकी मुख्य वस्तुघटनाओंका उल्लेख दोनोंमें एक ही समान है - कोई विशेषत्व सूचक न्यूनाधिकता नहीं है । परन्तु सुमति गणिकी लेखनशैली कहीं कहीं बातको कुछ बढा कर और शब्दोंका अनावश्यक आडंबर दिखा कर, वक्तव्यको अधिक पल्लवित करनेकी पद्धतिकी है और जिनपालकी रचनाशैली बहुत सीधी-सादी एवं परिमित शब्दोंमें वार्तागत मुख्य वस्तु-ही-के कहनेकी पद्धतिकी है। इसलिये हम यहां पर जिनपालके निबन्धका ही मुख्य सार देते हैं। जिनपाल एवं सुमति गणीका वर्णन वर्द्धमानाचार्यके वर्णनसे प्रारंभ होता है जो जिनेश्वर सूरिके चरितकी पूर्वभूमिकारूप है। अतः हम भी उसीके अनुसार यहां यह सारालेखन करते हैं। १. अभोहर प्रदेशमें एक जिनचन्द्राचार्य नामके देवमन्दिर ( चैत्य ) निवासी आचार्य थे जो ८४ स्थावलक ( ठिकानों) के नायक थे। उनका वर्द्धमान नामक शिष्य था । वह जब सिद्धान्तवाचना ले रहा था तब उसमें जिनमन्दिरके विषयकी ८४ आशातनाओंका वर्णन पढनेमें आया । उनको पढ कर उसके मनमें आया कि इन आशातनाओंका निवारण किया जाय तो अच्छा कल्याणकर है । उसने अपने गुरूसे इसका निवेदन किया। परंतु गुरुने सोचा इसका यह विचार हमारे लिये हितकर नहीं है । गुरुने उसको मोहबद्ध करनेके लिये आचार्य पद दे कर अपना सब अधिकार उसे समर्पित कर दिया। परन्तु उसका मन चैत्यवासके उस व्यापारमें न चौंटा और आखिरमें गुरुकी सम्मतिपूर्वक वह अपने कुछ अनुगामी यतियोंके साथ वहांसे नीकल कर दिल्लीके प्रदेशमें आया जहां उद्यतविहारी उद्योतनाचार्य ठहरे हुए थे। उनके पास उसने आगमके तत्त्वोंको अच्छी तरह समझ कर, उपसंपदा ग्रहण की और उनका अन्तेवासी बना । उद्योतन सूरिने उसको सूरिमंत्र दे कर आचार्य पद पर स्थापित किया । सूरिमत्रको प्राप्त करने पर वर्द्धमानाचार्यको यह संकल्प हुआ कि इस मंत्रका अधिष्ठाता कौन है ? इसके जाननेके लिये उन्होंने तीन उपवास किये । तब धरणेन्द्रने आ कर उनसे कहा कि मैं इस मंत्रका अधिष्ठाता हूं । फिर उस इन्द्रने मंत्रके प्रत्येक पदका क्या फल है इसका भी ज्ञान इनको कराया । भाचार्यको इस मंत्रका फिर बहुत संस्फुरण होने लगा अतः वे संस्फुराचार्यके नामसे प्रसिद्ध हुए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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