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________________ जिनेश्वर सूरिकी पूर्वावस्थाका परिचय । रखने वाले नागेन्द्रगच्छके देवचन्द्र सूरिने किया था। वनराजने जब इस नूतन नगरकी स्थापना की तो सबसे पहले यहां पर पार्श्वनाथका मन्दिर स्थापित किया गया जिसका नाम 'वनराजविहार' ऐसा रक्खा । फिर उसने अपने गुरुको यह मन्दिर समर्पित कर दिया और उनकी बडी भक्ति की । उसी समय संघके समक्ष वनराजने एक ऐसी व्यवस्था कर दी थी कि जिससे भविष्यमें जैनोंमें परस्पर मतविभेदके कारण कोई कलह न उत्पन्न हो। वह व्यवस्था यह है कि अणहिलपुरमें वे ही जैन यति आ कर निवास कर सकते हैं जो चैत्यवासी यतिजनोंको सम्मत हों। दूसरोंको यहां वासस्थान न दिया जाय । पूर्वराजाओंकी की हुई व्यवस्थाका पालन करना यह पिछले अनुगामी नृपतियोंका धर्म है। इसमें यदि हमारा कोई अनुचित कथन हो तो आप उसका निर्णय दें। राजाने इसके उत्तरमें कहा- 'पूर्वकालीन नृपतियोंकी की हुई व्यवस्थाका हम दृढतापूर्वक पालन करना चाहते हैं; परंतु साथमें हम गुणवानोंकी पूजाका उलंघन भी होने देना नहीं चाहते । आप जैसे सदाचारनिष्ठ पुरुषोंके आशीर्वादसे ही तो राजाओंका ऐश्वर्य बढ़ता है और यह राज्य तो फिर आप ही लोगोंका है इसमें कोई संदेह नहीं है । अब इस विषयमें हमारा आपसे यह अनुरोध है कि हमारे कथनसे आप इन आगन्तुक मुनियोंको यहां वसनेकी अनुमति दें।' __राजाकी इस इच्छाके अनुसार उन चैत्यवासी आचार्योंने, इन नवागन्तुक मुनियोंको शहरमें निवास करने देनेके विषयमें अपनी सम्मति प्रदर्शित की । इसके माद पुरोहितने राजासे विज्ञप्ति की कि इनके रहनेके लिये कोई स्थान स्वयं महाराज ही अपने मुखसे उद्घोषित कर दें जिससे फिर किसीको कुछ कहने-सुननेका न रहे । इतने ही में वहां पर, राजगुरु शैवाचार्य, 'कूरसमुद्र' बिरुद धारक, ज्ञानदेव आ पहुंचे । राजाने उठ कर उनको प्रणामादि किया और अपने ही आसन पर उन्हें बिठाया । फिर उनसे उसने विज्ञप्ति भी कि-अपने नगरमें ये जैन महर्षि आए हुए हैं इनके ठहरनेका कोई उचित स्थान नहीं है; यदि आपकी दृष्टिमें कोई ऐसा स्थान हो तो सूचित करें जो इनका उपाश्रय हो सके। यह सुन कर ज्ञानदेव बडे प्रसन्न हुए और बोले- 'महाराज ! आप इस तरह गुणीजनोंकी अभ्यर्चना करते हैं यह देख कर मुझे बहुत ही हर्ष होता है । शैव और जैन दर्शनमें वास्तवमें मैं कोई भेद नहीं मानता । दर्शनोंमें भेदबुद्धि रखना मिथ्यामतिका सूचक है । 'त्रिपुरुषप्रासाद'के अधिकार नीचे 'कणहट्टी' नामक जो जगह है वह इनके उपाश्रयके योग्य हो सकती है इसलिये उस स्थानको पुरोहितजी उपाश्रयके तौर पर उपयोगमें ला सकते हैं । इसके निमित्त अपने या पराये - किसी भी पक्षवालेने कुछ विघ्न उपस्थित किया तो मैं उसका निवारण करूंगा।' ऐसा कह कर उन्होंने एक मुख्य ब्राह्मणको ही इस कार्यको संपन्न करनेके लिये नियुक्त किया और कुछ ही समयमें वहां अच्छा उपाश्रय बन गया । उसके बाद, अणहिलपुरमें सुविहित जैन यतियोंके निवास करनेके लिये अनेक वसतियोंके-उपाश्रयोंके बननेकी परंपरा शुरू हो गई । महान् पुरुषों द्वारा स्थापित हुए कार्यकी वृद्धि होती ही है- इसमें कोई संदेह नहीं । बस प्रभावकचरितमें यहीं तक जिनेश्वर सूरिका चरितवर्णन है । इसके आगे फिर अभयदेव सूरिका चरितवर्णन शुरू होता है । प्रभावकचरितकारके कथनानुसार, इसके बाद जिनेश्वर सूरि विहरण करते १ अणहिलपुरमें 'त्रिपुरुषप्रासाद' नामका राज्यका मुख्य शैवमन्दिर था। क०प्र०४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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