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________________ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । बृहस्पतिके जैसा विद्वान् और नीतिविचक्षण राजपुरुष था । जिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागराचार्य उसके मकान पर पहुंचे । उसके द्वार पर उपस्थित हो कर इन्होंने संकेतविशिष्ट वेदमंत्रोंका बडे गंभीर ध्वनिसे ऐसा उच्चारण किया जिसे सुन कर वह राजपुरोहित आश्चर्यचकित हो गया । पुरोहित उस समय अपने नित्यकर्मके देवपूजनमें लगा हुआ था-वेदमंत्रोंको सुन कर वह मानों समाधिमग्न हो गया । उसने अपने बन्धुको बुला कर कहा, कि जा कर देखो तो बहार दरवाजे पर कौन ऐसे वेदमंत्र बोल रहा है । उसके द्वारा इन भाइयोंका खरूप जान कर, पुरोहितने बडे आदरके साथ इन्हें अन्दर बुलाया और उचित स्थान पर बिठाया । आशीर्वादात्मक कुछ पद्यपाठके बाद, पुरोहितने इनसे वार्तालाप किया और कुछ प्रारंभिक वृत्तांत सुन कर उसने इनसे पूछा कि आप कहां पर ठहरे हैं ? । उत्तरमें इन्होंने कहा कि इस नगरमें चैत्यवासी यतिजनोंका अत्यधिक प्राबल्य होनेके कारण हमें कोई भी कहीं ठहरनेकी जगह महीं दे रहा है और इसीलिये हम आपके स्थान पर पहुंचे हैं। पुरोहितने बडी प्रसन्नताके साथ, अपने विशाल भवनमें, जहां छात्रोंके पठन-पाठनकी पाठशाला थी, उसके एक एकान्त भागमें इनको ठहरनेकी जगह दे दी । पुरोहितके कुछ अनुचरोंके साथ भिक्षानिमित्त अन्यान्य घरोंमें जा कर इन्होंने वहांसे अपने उचित भिक्षान्न प्राप्त किया और अपने स्थान में बैठ कर उसका प्राशन किया। राजपुरोहितके मकान पर इस तरहके कोई अपरिचित जैन यति आ कर ठहरे हैं, इसकी चर्चा एकदम सारे नगरमें फैल गई । प्रथम तो बहुतसे याज्ञिक, स्मार्त, दीक्षित, अग्निहोत्री आदि ब्राह्मण विद्वान् कुतूहलवश वहां आ पहुंचे । उनके साथ इन्होंने कई प्रकारकी प्रौढ एवं गंभीर शास्त्रचर्चा की और इनके इस प्रकारके असाधारण शास्त्र-प्रावीण्यको देख कर वे सब बहुत सन्तुष्ट हुए । इतने-ही-में नगरके प्रमुख चैत्यवासी आचार्यके भेजे हुए कुछ मनुष्य आ पहुंचे और उन्होंने इनको आक्रोशपूर्वक शब्दोंमें हुकम दिया कि इस शहरमें चैत्यबाह्य श्वेतांबरोंको ठहरनेका कोई अधिकार नहीं है, इसलिये शीघ्र ही यहांसे नीकल जाओ- इत्यादि । उनके इस प्रकारके असभ्य और धार्य पूर्ण कथनको सुन कर, पुरोहितने स्वयं उत्तर दिया कि इसका निर्णय तो राजसभा द्वारा किया जा सकता है, इसलिये आप लोग वहां पहुंचे। उन्होंने जा कर पुरोहितका यह सन्देश अपने आचार्यको सुनाया। दूसरे दिन यथा समय चैत्यवासी यतिगण, अपने प्रधान प्रधान व्यक्तियों के साथ राजसभामें पहुंचे और उन्होंने पुरोहितके इस कार्यके प्रति अपना विरोध प्रकट किया। पुरोहित भी उस समय वहां उपस्थित हुआ । उसने कहा कि मेरे स्थान पर दो जैन मुनि आये जिनको इस महान् नगरमें इन जैन मतवालोंने कहीं पर ठहरने की जगह नहीं दी । मैंने इन मुनियोंको गुणवान् समझ कर अपने मकानमें ठहरनेकी व्यवस्था की है । इन लोगोंने अपने भट्टोंको भेज कर मेरे स्थान पर इस प्रकार असभ्य व्यवहार किया, इसलिये महाराजसे मेरा निवेदन है कि मैंने जो कोई इसमें अनुचित कार्य किया हो तो उसका दण्ड मैं भुगतनेको तैयार हूं। राजाने सुन कर कहा कि मेरे नगरमें देशान्तरसे जो कोई गुणवान् व्यक्ति आवे तो उसे न ठहरने देनेका या नीकाल देनेका किसीको क्या अधिकार है ? और उनके ठहरनेके लिये जो कोई स्थान आदिकी व्यवस्था करे तो उसमें उसका क्या दोष है ? इसके उत्तरमें चैत्यवासियों की ओरसे राजाको यह कहा गया कि-महाराज! आप जानते हैं कि इस नगरकी स्थापना चापोत्कटवंशीय वनराजने की है । बालपनमें उसका पालन-पोषण पंचासरके चैत्यमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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