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________________ जिनेश्वर सूरिके जीवन चरितका साहित्य । रहित थे । अर्थात् अपने विचारोंमें निर्धम थे । ख-समय और पर-समयके पदार्थसार्थका विस्तार करने में समर्थ थे । इन्होंने अणहिलवाडमें, दुर्लभ राजाकी सभामें प्रवेश करके, नामधारी आचार्योंके साथ, निर्विकार भावसे शास्त्रीय विचार किया और साधुओंके लिये वसति-निवासकी स्थापना कर अपने पक्षका स्थापन किया । जहां पर गुरुक्रमागत सद्वार्ताका नाम भी नहीं सुना जाता था उस गुजरात देशमें विचरण कर इन्होंने वसतिमार्गको प्रकट किया । [इसके बादकी ६ गाथाओंमें, जिनेश्वरके भ्राता बुद्धिसागर और शिष्य जिनभद्र, जिनचंद्र तथा अभयदेवकी स्तवना करके अन्तकी दो गाथाओंमें कहा है कि-] इनके अनेक शिष्योंने, मोक्षमार्गके प्रवासी भव्यजनके लिये, ऐसा सरल मार्ग प्रदर्शित किया है जिससे वे उस मार्गसे जा कर अपने अभीष्ट स्थानको प्राप्त कर सके । ऐसे इन जिनेश्वर सूरिके कणमात्र सद्गुणोंका कोई सत्कवि भी ठीक ठीक नहीं वर्णन कर सकता । मैं तो उनके चरणोंका शरण ही खीकार करता हूं। जिनदत्त सूरिकी इसी तरहकी एक और छोटीसी (२१ गाथाकी) प्राकृत पद्यरचना है जिसका नाम है 'सुगुरुपारतंत्र्यस्तव' । इसमें भी इन्होंने अपने गुरुओंकी, बहुत ही संक्षेपमें, परन्तु भावपूर्ण शब्दोंमें, गुणावलिका गान किया है । जिनेश्वर सूरिकी स्तवनामें निम्नलिखित ३ गाथाएं इसमें प्रथित की हैं सुहसीलचोरचप्परणपञ्चलो निश्चलो जिणमयंमि । जुगपवरसुद्धसिद्धंतजाणओ पणयसुगुणजणो ॥९॥ पुरओ दुल्लहमहिवल्लहस्स अणहिल्लवाडए पयर्ड। मुका वियारिऊणं सीहेण व दवलिंगिगया ॥१०॥ दसमच्छेरयनिसिविप्फुरंतसच्छंदसूरिमयतिमिरं । सूरेण व सूरिजिणेसरेण हयमहियदोसेण ॥ ११ ॥ इन गाथाओंमें प्रथित भावका तात्पर्यार्थ भी वैसा ही है जैसा ऊपरकी गाथाओंमें गर्भित हैं । इनमें जिनदत्त सूरि शब्दान्तर और भंग्यंतरसे कहते हैं कि जिनेश्वर अपने समयके 'युगप्रवर हो कर सर्व सिद्धान्तोंके ज्ञाता थे । जैन मतमें जो शिथिलाचार रूप चोरसमूहका प्रचार हो रहा था उसका उन्होंने निश्चल रूपसे निर्दलन किया । अणहिल्लबाडमें, दुर्लभराजकी सभामें, द्रव्यलिङ्गी ( वेशधारी) रूप हाथियोंका उन्होंने सिंहकी तरह विदारण कर डाला । खच्छन्दाचारी सूरियोंके मतरूपी अन्धकारका नाश करनेमें सूर्यके समान ये जिनेश्वर सूरि प्रकट हुए। जिनेश्वर सूरिके साक्षात् शिष्य-प्रशिष्यों द्वारा किये गये उनके गौरव परिचयात्मक इन उल्लेखोंसे हमें यह अच्छी तरह ज्ञात हुआ कि उनका आन्तरिक व्यक्तित्व कैसा महान् था । परन्तु इन उल्लेखोंसे उनके स्थल जीवनका कोई परिचय हमें अभी तक नहीं मिला। सिर्फ जिनदत्त सरिके किये गये इन अन्तिम उल्लेखोंमें इस एक ऐतिहासिक घटनाका हमें सूचन मिला कि उन्होंने गुजरातके अणहिलवाडके राजा दुर्लभराजकी सभामें नामधारी आचार्योंके साथ वाद-विवाद कर, उनका पराजय किया और वहांपर वसतिवासकी स्थापना की । इसलिये अब हमें उन ऐतिहासिक प्रमाणोंका परिचय करना आवश्यक है जिनके द्वारा जिनेश्वर सूरिके उक्त प्रसंगका एवं उनके स्थूल जीवनकी अन्यान्य बातोंका परिज्ञान हो। ... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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