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________________ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर रि । ४. जिनेश्वर सूरिके चरितकी साहित्यिक सामग्री । जिनेश्वर सूरिके जीवनका परिचय करानेवाली ऐतिहासिक एवं साहित्यिक मुख्य साधन-सामग्री निम्न प्रकार है - १. जिनदत्तसूरिकृत 'गणधर सार्द्धशतक' ग्रन्थ की सुमतिगणि विरचित बृहद्वृत्ति । २. जिन पालोपाध्याय संगृहीत 'स्वगुरुवार्ता नामक बृहत् पट्टावलि' का आद्य प्रकरण । ३. प्रभाचन्द्रसूरिविरचित 'प्रभावकचरित' का अभयदेवसूरिप्रबन्ध । ४. सोमतिलकसूरिकृत 'सम्यक्त्व सप्ततिकावृत्ति' में कथित धनपालकथा | ५. किसी अज्ञातनामक विद्वान्‌की बनाई हुई प्राकृत 'वृद्धाचार्य प्रबन्धावलि' | इन कृतियोंका परिचय और रचना काल आदि इस प्रकार है - (१) गणधर सार्द्धशतक ग्रन्थ जो मूल जिनदत्त सूरिकी कृति है और जिसका उद्धरण ऊपर दिया गया है, उस पर सुमति गणीने सबसे पहले एक बहुत विस्तृत टीका लिखी है जिसकी रचनासमाप्ति वि. सं. १२९५ में हुई । इस टीकामें ऊपर उद्धृत गाथाओंकी व्याख्या करके, फिर सुमति गणीने जिनेश्वर सूरिका यथाज्ञात चरित भी ग्रथित किया है जो पूर्णदेव गणी कथित 'वृद्ध संप्रदाय' रूप है । सुमतिगणका यह पूरा प्रकरण, हम इस ग्रन्थके परिशिष्टके रूपमें, मूल खरूपमें प्रकाशित कर रहे हैं । सुमति गणी उल्लेखसे ज्ञात होता है कि जिनेश्वर सूरिका जो चरित-वर्णन उन्होंने निबद्ध किया है वह पूर्णदेव गणका कहा हुआ है । यथा “अत्र चायं वाचनाचार्यपूर्ण देवगणि मुख्यवृद्धसंप्रदायः ।” यद्यपि इस उल्लेखसे यह नहीं निश्चित होता है कि सुमति गणीने, पूर्णदेवकी बनाई हुई किसी कृतिके आधारसे यह चरित निबद्ध किया है, या साक्षात् उनके मुखसे सुनी हुई वार्ताके आधारपर स्वयं उन्होंने यह आलेखित किया है । परंतु इससे इतना तो निश्चित होता ही है कि सुमति गणी रचित इस चरितका आधार प्राचीन बुद्धसंप्रदाय है और इसलिये इसकी ऐतिहासिकता अधिक विश्वसनीय है । ये पूर्णदेव गणी, सुमति गणीके गच्छनायक - गुरु जिनपति सूरिके गुरुभ्राता थे । वि. सं. १२१४ में जिनचन्द्र सूरिने इनको दीक्षित किया था और सं. १२४४-४५ में जिनपति सूरिने इनको वाचनाचार्यका पद दिया था । (२) दूसरी कृति जिनपाल उपाध्याय ग्रथित खगुरुवार्ता नामक बृहद्गुर्वावलिका आध प्रकरण है । ये जिनपालोपाध्याय भी, सुमति गणीके गुरुभ्राता अर्थात् जिनपति सूरि-ही के शिष्य थे । अतः दोनों समकालीन थे। जिनपालोपाध्याय की यह कृति, बीकानेर के जैन ज्ञान भण्डार में उपलब्ध एक प्राचीनतम 'खरतरगच्छबृहद्गुर्वावलि' के प्रारंभ में संलग्नभावसे लिखी हुई मिली है । इस संपूर्ण गुर्वावलिको हम स्वतंत्र ग्रन्थके रूपमें, इसी ग्रन्थमालामें अलग प्रकाशित कर रहे हैं । जिनपाल अपने इस निबन्धके प्रारंभ में सूचित करते हैं कि जिनेश्वर सूरि आदि अपने पूर्वाचार्यों का यह चरित वर्णन हम वृद्धोंके कथन के आधार पर कर रहे हैं। इससे ज्ञात होता है कि जिनपालका यह चरित-वर्णन भी बहुत करके उक्त पूर्णदेव गणीके कथित आधार पर ही प्रथित किया गया है । सुमति गणीका उक्त चरित-वर्णन और जिनपालका यह चरित वर्णन दोनों प्रायः एकसे ही है । कहीं कहीं शब्द-रचना और वाक्य रचना में थोडा बहुत फरक होनेके सिवा वस्तुवर्णन में कोई अन्तर नहीं है । इससे ऐसा स्पष्ट मालूम देता है कि इन दोनों ही ने पूर्णदेव गणीके कथन की प्रायः प्रतिलिपि की है । सुमति गणीकी लेखनशैली बहुत कुछ आडंबरवाली होनेसे उन्होंने जहां कहीं अपनी ओरसे कुछ वाक्य सम्मीलित करनेका प्रयत्न किया है वहां वैसे आडंबरयुक्त वाक्य या कुछ अन्य प्रासंगिक अवतरण दे कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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