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________________ १५ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । 1 दृष्टि धर्मदेव उपाध्यायके शिष्य पण्डित सोमचन्द्र पर पडी, जो इस पद के सर्वथा योग्य एवं जिनवल्लभ के जैसे ही पुरुषार्थी, प्रतिभाशाली, क्रियाशील और निर्भय प्राणवान् व्यक्ति थे । देवभद्राचार्य फिर चित्तोड गये और वहां पर, जिनवल्लभ सूरिके प्रधान - प्रधान उपासकोंके साथ परामर्श कर उनकी सम्मति से, सं. १९६९ के वैशाख मासमें, सोमचन्द्र गणिको आचार्य पद दे कर, जिनदत्त सूरिके नामसे जिनवल्लभ सूरके उत्तराधिकारी आचार्य पद पर उन्हें प्रतिष्ठित किया । जिनवल्लभ सूरिके विशाल उपासक वृन्दका नायकत्व प्राप्त करते ही जिनदत्त सूरिने अपने पक्षकी विशिष्ट संघटना करनी शुरू की। जिनेश्वर सूरि प्रतिपादित कुछ मौलिक मन्तव्योंका आश्रय ले कर और कुछ जिनवल्लभ सूरिके उपदिष्ट विचारोंको पल्लवित कर, इन्होंने जिनवल्लभ स्थापित उक्त ' विधिपक्ष' नामक संघका बलवान् और नियमबद्ध संगठन किया जिसकी परम्पराका प्रवाह, जिसे प्रायः अब ८०० वर्ष पूरे हो रहे हैं, आज तक अखण्डित रूपसे चलता रहा । जिनदत्त सूरिने प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश भाषा में छोटे-बडे अनेक ग्रन्थोंकी रचना की । इनमें एक 'गणधर सार्द्धशतक' नामक ग्रन्थ है जिसमें इन्होंनें भगवान् महावीरके शिष्य गौतम गणधरसे ले कर अपने गच्छपति गुरु जिनवल्लभ सूरि तकके, महावीरके शासन में होने वाले और अपनी संप्रदाय परंपरामें माने जाने वाले, प्रधान प्रधान गणधारी आचायोंकी स्तुति की है । १५० गाथाके इस प्रकरण में, आदिकी ६२ गाथाओं तकमें तो पूर्व कालमें होजाने वाले कितनेक पूर्वाचायोंकी प्रशंसा की है । ६३ से ले कर ८४ तककी गाथाओंमें वर्द्धमान सूरि और उनके शिष्यसमूह में होने वाले जिनेश्वर, बुद्धिसागर, जिनचन्द्र, अभयदेव, देवभद्र आदि अपने निकट पूर्वज गुरुओंकी स्तुति की है; और फिर शेष भाग में, ८५ वीं गाथासे ले कर १४७ तककी गाथाओंमें अपने गणके स्थापक गुरु जिनवल्लभकी बहुत ही प्रौढ शब्दोंमें तरह- तरहसे स्तवना की है । जिनेश्वर सूरके गुणवर्णनमें इन्होंने इस ग्रन्थमें निम्न लिखित गाथाएं प्रथित की हैं - -- तेसि पयपउम सेवारसिओ भमरो व्व सव्वभमरहिओ । ससमय-परसमयपयत्थसत्थवित्थारणसमत्थो ॥ ६४ ॥ अणहिलवाडए नाडऍ व्व दंसियसुपत्तसंदोहे | परपए बहुकविदूसगे य सन्नायगाणुगत् ॥ ६५ ॥ सडियदुलहराए सरसइअंकोवसोहिए सुहए । मज्झे रायसहं पवि सिऊण लोयागमाणुमयं ॥ ६६ ॥ नामायरियेहिं समं करिय वियारं वियारर हिपहिं । वसहिविहारो साहूण ठाविओ ठाविओ अप्पा ॥ ६७ ॥ परिहरियगुरुक मागयवरवत्ताए वि गुज्जरत्ताए । वसहिविहारो जेहिं फुडीकओ गुजरत्ताए ॥ ६८ ॥ Jain Education International ... ... ... ... जेहिं बहुसीसेहिं सिवपुरपहपत्थियाण भव्वाणं । सरलो सरणी समगं कहिओ ते जेण जंति तयं ॥ ७५ ॥ गुणकणमवि परिकहिउं न सक्का सक्कई वि जेसेिं फुडं । तेसिं जिणेसरसूरीण चरणसरणं पवज्जामि ॥ ७६ ॥ इन गाथाओंका सारार्थ यह है कि उन वर्द्धमान सूरि ( जिनकी स्तुति इसके पहले की गाथामें की सेवारसिक जिनेश्वर सूरि हुए । ये सब प्रकारके भ्रम से गई है ) के चरणकमलों में भ्रमर के समान - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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