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________________ • कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि। रचना सं. ११६० में, खंभातमें, पूर्ण की । इन ग्रन्थोंमें इन्होंने अपने प्रगुरुकी प्रशंसा इस प्रकार की है। अप्पडिबद्धविहारो सूरी सोमो व्व जणमणाणंदो। आसि सिरिवद्धमाणो पवद्धमाणो गुणगणेहिं ॥ सूरिजिणेसर-सिरिबुद्धिसायरा सागरो ब्व गंभीरा । सुरगुरु-सुक्कसरिच्छा सहोयरा सूरिपयपत्ता ॥ वायरण-च्छंद-निघंटु-कव्व-नाडय-कहाइ विविहाई । विबुहजणजणियहरिसा जाण पबंधा पढिजति ॥ ताण विणेओ सूरी सिरिअभयदेव त्ति नाम संजाओ। विजियक्खो पच्चक्खं कयविग्गहसंगहो धम्मो ॥ -मनोरमा कथाकी प्रशस्ति । खमदमसंजमगुणरयणरोहणो विजियदुजयाणंगो। आसि सिरिवद्धमाणो सूरी सव्वत्थसुपसिद्धो॥ सूरिजिणेसर-सिरिबुद्धिसागरा सायरो व्व गंभीरा । सुरगुरु-सुक्कसरिच्छा सहायेरा तस्स दो सीसा ॥ वायरण-च्छंद-निघंटु-कव्व-नाडय-पमाणसमएण । अणिवारियप्पयारा जाण मई सयलसत्थेसु ॥ -आदिनाथ-चरित्रकी प्रशस्ति । वर्द्धमान सूरिने, इन ऊपर उद्धृत गाथाओंमें, अपने प्रगुरुकी प्रशंसा उनके एक खास पाण्डित्यगुणको लक्ष्य करके ही की है । वे कहते हैं - जिनेश्वर और बुद्धिसागर दोनों सूरि-बन्धु बृहस्पति और शुक्रकी जोडीके समान थे । इन बन्धुओंकी व्याकरण, छन्द, निघंटु, काव्य, नाटक, कथा और प्रमाण आदि सकल शास्त्रोंमें अस्खलित गति थी । इनके रचे हुए उक्त विषयोंके ग्रन्थ-प्रबन्ध विद्वजन बडे हर्षके साथ पढते हैं। इस उल्लेखसे ज्ञात होता है कि, इन भ्राताओंने काव्य, नाटक, छन्द, निघण्टु आदि विषयोंके भी कुछ प्रबंधोंका प्रणयन किया होना चाहिये । इनमेंका कोई प्रबंध अभीतक हमें ज्ञात नहीं हुआ । जैसा कि आगे चल कर हम इनके उपलब्ध ग्रन्थोंका परिचय करायेंगे, उससे ज्ञात होगा कि व्याकरण, कथा, प्रमाण और कुछ धार्मिक प्रकरण ग्रन्थ ही इनके अभीतक हमें ज्ञात हो रहे हैं । काव्य - नाटकादि प्रबंध या तो नष्ट हो चुके हैं या कहीं किसी अज्ञात ग्रन्थभण्डारमें पडे पडे सड रहे होंगे । उनका अभी तक कोई पता नहीं चला । अभयदेव सूरिने तथा जिनचन्द्र सूरिने भी बुद्धिसागराचार्यको 'व्याकरण आदि शास्त्रोंका प्रणेता' ऐसा सूचित किया है । इससे ज्ञात होता है कि उन्होंने, वर्तमानमें एक मात्र उपलब्ध अपने व्याकरण ग्रन्थ (जिसका कुछ परिचय ऊपर दिया जा चुका है) के सिवा और भी कई ग्रन्थोंका प्रणयन किया होना चाहिये । इसके नीचे जो देवभद्र सूरिका उद्धरण दिया जा रहा है उससे यह तो निश्चित ज्ञात होता है कि बुद्धिसागर सूरिने छन्दविषयक भी कोई शास्त्र बनाया था। देवभद्राचार्यकृत उल्लेख । देवभद्र सूरि, जिनके ग्रन्थका उद्धरण यहां नीचे दिया जाता है, वे अभयदेव सूरिके एक पट्टधर शिष्य प्रसन्नचन्द्र सूरिके विनेय थे । यों इनके दीक्षा-दायक गुरु तो साक्षात् जिनेश्वर सूरि-ही-के एक शिष्य सुमति वाचक थे और इनका मूल नाम गुणचन्द्र गणी था । अशोकचन्द्राचार्य, जिनको जिनचन्द्रसूरिने बडे प्रेमसे विद्याभ्यास कराया था और फिर आचार्यपद दे कर अपने पट्टपर प्रतिष्ठित किया था, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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