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________________ जिनेश्वर सूरिके जीवनचरितका साहित्य । उन्होंने प्रसन्नचन्द्र सूरिके साथ ही इनको भी आचार्य पद दे कर, देवभद्र इस नये नामसे उद्घोषित किया था । प्रसन्नचन्द्र सूरि, मूल जिनेश्वर सूरिके दीक्षित शिष्य थे; परन्तु उनको तर्कशास्त्रादि विद्याका अध्ययन अभयदेव सूरिने कराया था। उनको आचार्य पद प्रदान करते समय अशोकचन्द्र सूरिने, शायद उन्हें अभयदेवके पट्ट पर स्थापित किया था, इसलिये वे अपनेको अभयदेवका भी विनेय कहते थे । देवभद्रने शायद इन प्रसन्नचन्द्रके पास विद्याध्ययन किया हो और इन्हींके पास विशेष रूपसे रहे हों इसलिये ये अपनेको इनका खास अन्तेवासी विनेय सूचित करते हों। : जिनचन्द्र गणिने जो उक्त संवेगरंगशाला नामक बृहत् आराधनाग्रन्थ बनाया उसका प्रतिसंस्कार इन्हींने किया था । जिनवल्लभ और जिनदत्त सूरिको इन्हींने आचार्य पद दे कर उनको गणनायक बनाया था। इन्होंने प्राकृत भाषामें पार्श्वनाथचरित्र, महावीरचरित्र, कथारत्नकोषादि ४ बडे बडे प्रौढ प्रन्थोंकी रचना की है । इनका पहला ग्रन्थ 'महावीरचरित' है जिसकी रचना वि. सं. ११३९ में पूर्ण हुई। इस समय तक इनको आचार्य पद नहीं दिया गया था, इससे इसमें इन्होंने अपना उल्लेख मूलदीक्षित नाम-गुणचन्द्र गणीके नामसे ही किया है । दूसरा ग्रन्थ 'कथारत्नकोष' है जिसकी रचना सं. ११५८ में पूरी हुई और तीसरा ग्रन्थ 'पार्श्वनाथचरित' है जो सं. ११६८ में समाप्त हुआ । इन्होंने अपने महावीर चरित्रमें जिनेश्वर सूरिके विषयमें इस प्रकार उल्लेख किया है - मुणिवइणो तस्स हरट्टहाससियजसपसाहियासस्स । आसि दुये वरसीसा जयपयडा सूर-ससिणो व्व ॥ भवजल हिवीइसंभंतभवियसंताण तारणसमत्थो। बोहित्थो व्व महत्थो सिरिसूरिजिणेसरो पढमो॥ अन्नो य पुन्निमायंदसुंदरो बुद्धिसागरो सूरी। निम्मविय पवरवायरण-छंदसत्थो पसत्थमई ॥ एगंतवायविलसिरपरवाइकुरंगभंगसीहाणं । तेसि सीसो जिणचंदसूरिनामो समुप्पन्नो ॥ --महावीरचरित्रकी प्रशस्ति। इनके इस उल्लेखका भी भावार्थ वही है जो ऊपर दिये गये अन्यान्य उल्लेखोंमें गर्भित है । अर्थात् ये कहते हैं कि -मुनिवर वर्द्धमान सूरिके सूर्य और चन्द्रमाके समान तेजस्वी ऐसे श्री जिनेश्वर और बुद्धिसागर नामके दो जगत्प्रख्यात प्रधान शिष्य हुए। इनमें जिनेश्वर सूरि जो प्रथम थे, संसार समुद्र में भूले पडे हुए भव्य जनोंको तारनेके लिये प्रवहणके समान समर्थ हुए । दूसरे बुद्धिसागर सूरि, जो पूर्णिमाके चंद्रमाके समान सुन्दर लगते थे बडे प्रशस्तमति हो कर, उन्होंने व्याकरण और छन्दःशास्त्रकी प्रौढ रचनाएँ की हैं । ये दोनों ही आचार्य एकान्तवादमें विलास करने वाले परवादीरूप मृगोंका भंग करनेमें सिंहके समान बलशाली हुए, इत्यादि । ऊपर जो कुछ ये उद्धरण दिये गये हैं वे सब जिनेश्वर सूरिके साक्षात् शिष्योंके ही ग्रथित ग्रन्थोंमेंसे उपलब्ध होनेके कारण इनकी प्रमाणभूततामें किसी प्रकारकी शंकाको अवकाश नहीं है। जिनदत्तसूरिकृत उल्लेख । इन उल्लेखोंमें, कालक्रमकी दृष्टि से अन्तिम परन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से विशेष महत्त्वका एवं जिनेश्वर१ पिछले ग्रन्थ 'कथारत्न कोष' तथा 'पार्श्वनाथ चरित्र में संक्षेप-ही-में नाम निर्देश कर इन्हें सन्तोष धारण करना पड़ा है। क्यों कि जितना उल्लेख करना इन्हें उपयुक्त था उसे ये अपने पहले ग्रन्थमें कर चुके थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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