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________________ ረ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । ये सब निर्देश, अपेक्षाकृत उत्तरकालीन हो कर, मूलभूत जो सबसे प्राचीन निर्देश हैं उन्हींके अनुलेखन रूप होनेसे तथा कहीं कहीं विविध प्रकारकी अनैतिहासिकताका स्वरूप धारण कर लेनेसे, इनके विषय में यहां खास विचार करने की कोई आवश्यकता नहीं है । हम यहां पर उन्हीं निर्देशोंका सूचन करते हैं जो सबसे प्राचीन हो कर ऐतिहासिक मूल्य अधिक रखते हैं । जैसा कि हमने ऊपर सूचित किया है जिनेश्वर सूरि एक बहुत ही भाग्यशाली साधुपुरुष थे । इनकी यशोरेखा एवं भाग्यरेखा बडी उत्कट थी । इससे इनको ऐसे ऐसे शिष्य और प्रशिष्यरूप महान् सन्ततिरल प्राप्त हुए जिनके पाण्डित्य और चारित्र्यने इनके गौरवको दिगन्तव्यापी और कल्पान्तस्थायी बना दिया । यों तो प्राचीन कालमें, जैन संप्रदायमें सेंकडों ही ऐसे समर्थ आचार्य हो गये हैं जिनका संयमी जीवन जिनेश्वर सूरिके समान ही महत्त्वशाली और प्रभावपूर्ण था; परन्तु जिनेश्वर सूरिके जैसा विशालप्रज्ञ और विशुद्ध संयमवान्, विपुल शिष्य-समुदाय शायद बहुत ही थोडे आचार्योंको प्राप्त हुआ होगा । जिनेश्वर सूरिके शिष्य-प्रशिष्यों में एक-से-एक बढ कर अनेक विद्वान् और संयमी पुरुष हुए और उन्होंने अपने महान् गुरुकी गुण-गाथाका बहुत ही उच्चखरसे खूब ही गान किया है । सद्भाग्यसे इनके ऐसे शिष्य-प्रशिष्यों की बनाई हुई बहुतसी ग्रन्थकृतियां आज भी उपलब्ध हैं और उनमेंसे हमें इनके विषयकी यथेष्ट गुरुप्रशस्तियां पढनेको मिलती हैं । इनमें से कुछ महत्त्व के प्रशस्ति-पाठोंका हम यहां उल्लेख करना चाहते हैं । बुद्धिसागराचार्यकृत उल्लेख । 1 जिनेश्वर सूरिके समकालीन और सहवासी ग्रन्थकारोंमें, सबसे पहला स्थान उन्हींके लघु भ्राता श्री बुद्धिसागराचार्यको प्राप्त होता है । ये जिनेश्वर सूरिके सहोदर भ्राता भी थे और सतीर्थ्य गुरुबन्धु भी थे | मालूम देता है प्रायः ये दोनों बन्धु साथ ही रहते और विचरते थे । वि. सं. १०८० में ये दोनों आचार्य जाबालिपुर ( आधुनिक मारवाड राज्यका जालोर) में थे। जिनेश्वर सूरिने यहां पर इस वर्ष में हरिभद्राचार्यकृत अष्टकसंग्रह नामक प्रकरण प्रन्थकी टीका बनाई और बुद्धिसागराचार्यने अपने स्वोपज्ञ पंचग्रन्थी नामक संस्कृत व्याकरण ग्रन्थ की रचना पूर्ण की । इस ग्रन्थकी प्रशस्तिमें बुद्धिसागराचार्यने निम्न लिखित पद्योंमें, संक्षिप्त रूपसे परन्तु बडे ही सारगर्भित भावसे, अपने बन्धु - आचार्यकी गुणगरिमाका गौरव पूर्ण उल्लेख किया है । १ जिनेश्वर सूरिने भी स्वयं इस व्यारणका उल्लेख अपने प्रमालक्षण नामक ग्रन्थके अन्तिम श्लोकमें इस प्रकार किया हैश्रीबुद्धिसागराचार्यैर्वृतैर्व्याकरणं कृतम् । अस्माभिस्तु प्रमालक्ष्म वृद्धिमायातु सांप्रतम् ॥ इस व्याकरण ग्रन्थ की अभी तक एक ही मूल प्रति जेसल मेरके ज्ञानभण्डारमें ताडपत्र ऊपर लिखी हुई ज्ञात हुई है। इसी प्रतिके ऊपरसे, जिनभद्र सूरिके समय में, (वि. सं. १४७५ - १५१४ ) कागज ऊपर प्रतिलिपित की गई प्रति पाटण के वाडीपार्श्वनाथ के भण्डारमें उपलब्ध है । जेसलमेरका ताडपत्रीय पुस्तक भी प्रायः शुद्ध नहीं है और उस पर से प्रतिलिपित पाटणकी प्रति भी वैसी ही अशुद्धप्राय है । इस ग्रन्थकी अन्तकी पूरी प्रशस्ति इस प्रकार है । Jain Education International आसीन्महावीरजिनोऽस्य शिष्यः, सुधर्मनामाऽस्य च जम्बुनामा | तस्यापि शिष्यः प्रभवोऽस्य शिष्यः, राज्यम्भवोऽस्यानुपरम्परायाम् ॥ १ ॥ वज्रोsस्य शाखाम्बरमण्डलेऽस्मिन् साधुवृन्दावृतशान्तकान्तिः । भव्यासुमत्सत्कुमुदप्रबोधो निर्मा ( र्णा ) शिवाज्ञानघनान्धकारः ॥ २ ॥ बालेन्दुवत् सर्वजनाभिवन्यः शुलीकृताङ्गीकृतसाधुपक्षः । कलाकलापोपचयोम्ब (?) मूर्तिः श्रीवर्धमानो नतवर्धमानः ॥ ३ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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