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________________ जिनेश्वर सूरिके जीवन चरितका साहित्य । गुरुपदमनुकर्तुं तद्वदेवास्य शिष्योऽशिवदशिवदकल्पः कल्पशाखोपमेयः। अनतिकदतिकृदधि (१) व्याप्यचित्तोऽप्यचित्तोऽभवदिह वदिहाशः श्रीजिनेशो यतीशः॥ जलनिधिवदगाधो मोक्षरत्नार्थिसेव्यो यमनियमतपस्याज्ञानरत्नावलिश्च । सुरगिरिरिव वातैर्वायदूकैरकम्प्यो वचनजलसुगतां तर्पयन्नुप्तशस्याम् (१)॥ सुरपतिरतिवासे जैनमार्गोदयाद्रौ हतकुमततमिस्रः प्रोदगात् सूरिसूर्यः।। भषसरसिरहाणां भव्यपनाकराणां विदधदिव सुलक्ष्मी बोधकोऽहर्निशं तु ॥ इन पचोंका भावार्थ यह है, कि श्री वर्द्धमान सूरि, कि जो हमारे गुरु हैं, उनके पदका अनुकरण करनेमें सर्वथा उन्हींके जैसे उनके शिष्य श्री जिनेश्वर सूरि हैं । ये कल्याण करनेमें कल्पवृक्षके जैसे हैं। यम, नियम, तपस्या और ज्ञानके समुद्र हैं । मोक्षरूप रत्नकी प्राप्ति चाहने वालोंके लिये अगाध जलनिधिकी तरह उपासनीय हैं । जैसे पवनसे मेरुपर्वत नहीं कांपता वैसे ये भी वावदूकोंके (वाचाल ऐसे वादिजनोंके ) वाग्जालरूप वातसे कंपायमान नहीं होते । अपने वचनरूप जलसे (उपदेशामृतसे) संतप्त आत्माओंको तृप्त करते रहते हैं । कुमतरूप अन्धकारका नाश करने वाले और भव्यजनरूप कमलोंका विकाश करने वाले ऐसे सूर्यस्वरूप ये सूरि जैनमार्गरूपी उदयाचलके शिखरपर अभिनव उदित हुए हैं। बुद्धिसागराचार्यने इस प्रकार बहुत ही संक्षेपमें इनके पाण्डित्य, चारित्र, धैर्य, वाक्पटुत्व, तेजस्विता और यशखिता आदि सभी मुख्य गुणोंका सूत्ररूपसे यहां पर निर्देश कर दिया है और वह संपूर्ण तथ्यपूर्ण है । इनके दिये हुए ये विशेषण सभी सार्थक हो कर विशेषताके सूचक हैं । बुद्धिसागराचार्य जिनेश्वर सूरिके सर्वथा समकक्ष थे। इनके पिछले शिष्य-प्रशिष्योंने इन दोनों गुरुभ्राताओंका प्रायः सर्वत्र एक साथ और एक ही भावसे गुणगान और यशोविधान किया है। इससे मालूम देता है कि अपने समुदायके ये दोनों बन्धु आचार्य समान भावसे उन्नायक और उपकारक थे । इस लिये बुद्धिसागर सूरिका, जिनेश्वर सूरिके विषयमें किया गया यह संक्षिप्त गुणविधान, अत्यधिक महत्त्व रखता है। जिनप्रणीतागमतत्त्ववेत्ता द्विषां प्रणेतेव मनु[जे ?]तराणां (?)। साहित्य विद्याप्रभवो बभूव श्वेताम्बरः श्वेतयशा यतीशः ॥ ४ ॥ गुरुपदमनुकतु तद्वदेवास्य शिष्योऽशिवदशिवदकल्पः कल्पशाखोपमेयो। भनतिकृदतिकृदधि (?) व्याप्यचित्तोऽप्यचित्तोऽभवदिह वदिहाशः श्रीजिनेशो यतीशः ॥ ५॥ जलनिधिवदगाधो मोक्षरतार्थिसेव्यो यमनियमतपस्याज्ञानरत्नावलिश्च । सुरगिरिरिव तैर्वा (वातैः ?) वावदूकैरकम्प्यो वचनजलसुगेतां (?) तर्पयत्रुप्तशस्थाम् ॥६॥ सुरपतिरतिवासे जनमार्योदयाद्रौ हतकुमततमिश्रः (स्रः) प्रोदगात् सूरिसूर्यः । भवसरसिरहाणां भव्यपद्माकराणां विदधदिव सुलक्ष्मी बोधकोऽहर्निशं तु ॥७॥ श्रीबुद्धिसागराचार्योऽनुग्राह्योऽभवदेतयोः। पञ्चग्रन्थीं स चाकार्षीजगद्धितविधिस्सया ॥ ८॥ यदि मदिकृतिकल्पोऽनर्थधीमत्सरी वा कथमपि सदुपायैः शक्यते नोपकर्तुम् । तदपि भवति पुण्यं स्वाशयस्यानुकूल्ये पिबति सति यथेष्टं श्रोत्रियादौ प्रपायाम् ॥९॥ अम्भोनिधिं समवगाह्य समाप लक्ष्मी चेद्वामनोऽपि पृथिवीं च पदत्रयेण । श्रीबुद्धिसागरम, स्ववगाय कोद्यो(?), व्याप्नोति तेन जगतोऽपि पदद्वयेन ॥१०॥ श्रीविक्रमादित्यनरेन्द्रकालात् साशीतिके याति समासहस्रे। सश्रीजावालिपुरे तदा इब्धं मया सप्तसहस्त्रकरुपम् ॥११॥७॥ क. प्र०२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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