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________________ जिनेश्वर सूरिके जीवनचरितका साहित्य | ग्रन्थोंके अतिरिक्त ब्राह्मण और बौद्ध संप्रदायके भी, व्याकरण, न्याय, अलंकार, काव्य, कोष, छन्द, ज्योतिष आदि विविध विषयोंके सभी महत्त्व के ग्रन्थोंकी पोथियोंके संग्रहवाले बडे बडे ज्ञान भण्डार भी स्थापित किये जाने लगे । I अब ये यतिजन केवल अपने अपने स्थानोंमें ही बद्ध हो कर बैठ रहनेके बदले भिन्न भिन्न प्रदेशों में घूमने लगे और तत्कालीन परिस्थिति के अनुरूप, धर्मके प्रचारका कार्य करने लगे । जगह जगह जै क्षत्रिय और वैश्य कुलोंको अपने आचार और ज्ञानसे प्रभावित कर, नये नये जैन श्रावक बनाए जाने लगे और पुराने जैन गोष्ठी -कुल नवीन जातियोंके रूपमें संगठित किये जाने लगे । पुराने जैन देवमन्दिरोंका उद्धार और नवीन मन्दिरोंका निर्माण कार्य भी सर्वत्र विशेष रूपसे होने लगा । जिन यतिजनोंने चैत्यनिवास छोड दिया था उनके रहनेके लिये ऐसे नये वसतिगृह बनने लगे जिनमें उन उन यतिजनों के अनुयायी श्रावक भी अपनी नित्य नैमित्तिक धर्मक्रियाएं करनेकी व्यवस्था रखते थे । ये ही वसतिगृह पिछले कालमें उपाश्रयके नामसे प्रसिद्ध हुए । मन्दिरोंमें पूजा और उत्सवोंकी प्रणालिकाओं में भी नये नये परिवर्तन होने लगे और इसके कारण यतिजनों में परस्पर, शास्त्रोंके कितनेक विवादास्पद विचारों और शब्दार्थों पर भी वाद-विवाद होने लगा; और इसके परिणाममें कई नये नये गच्छ और उपगच्छ भी स्थापित होने लगे । ऐसे चर्चास्पद विषयों पर स्वतंत्र छोटे-बडे ग्रन्थ भी लिखे जाने लगे और एक-दूसरे संप्रदाय की ओरसे उनका खण्डन- मण्डन भी किया जाने लगा । इस तरह इन यतिजनोंमें पुरातन प्रचलित प्रवाहकी दृष्टिसे, एक प्रकारका नवीन जीवन - प्रवाह चालू हुआ और उसके द्वारा जैन संघका नूतन संगठन बनना आरंभ हुआ । इस तरह तत्कालीन जैन इतिहासका सिंहावलोकन करनेसे ज्ञात होता है, कि विक्रमकी ११ वीं शताब्दी के प्रारंभ में जैन यतिवर्गमें एक प्रकारसे नूतन युगकी उषाका आभास होने लगा था जिसका प्रकट प्रादुर्भाव जिनेश्वर सूरिके गुरु वर्धमान सूरिके क्षितिज पर उदित होने पर दृष्टिगोचर हुआ । जिनेश्वर सूरिके जीवन कार्यने इस युग परिवर्तनको सुनिश्चित मूर्तस्वरूप दिया । तबसे ले कर पिछले प्रायः ९०० वर्षों में, इस पश्चिम भारतमें, जैन धर्मका जो सांप्रदायिक और सामाजिक स्वरूपका प्रवाह प्रचलित रहा उसके मूलमें जिनेश्वर सूरिका जीवन सबसे अधिक विशिष्ट प्रभाव रखता है और इस दृष्टिसे जिनेश्वर सूरिको, जो उनके पिछले शिष्य-प्रशिष्योंने, युग प्रधान पदसे सम्बोधित और स्तुतिगोचर किया है वह सर्वथा ही सत्य वस्तुस्थितिका निदर्शक है ।" ३. जिनेश्वर सूरिके जीवनचरितका साहित्य | जिनेश्वर सूरिके इस प्रकारके युगावतारी जीवन कार्यका निर्देश करनेवाले उल्लेख यों तो सेंकडों ही ग्रन्थों में प्राप्त होते हैं । क्यों कि उनकी शिष्य सन्ततिमें आज तक सेंकडों ही विद्वान् और ग्रन्थकार यतिजन हो गये हैं और उन सबने प्रायः अपनी अपनी कृतियोंमें इनके विषयमें थोडा - बहुत स्मरणात्मक उल्लेख अवश्य किया है । इन ग्रन्थोंके सिवाय, बीसियों ऐसी गुरुपट्टावलियां हैं, जिनमें इनके चैत्यवास निवारण रूप कार्यका अवश्य उल्लेख किया हुआ रहता । ये पट्टावलियां भिन्न-भिन्न समयमें, भिन्न-भिन्न यतियों द्वारा, प्राकृत, संस्कृत और प्राचीन देश्य भाषामें लिपिबद्ध की हुई हैं । इन ग्रन्थस्थ लेखों के अतिरिक्त जिनमूर्तियों और जिनमन्दिरोंके ऐसे अनेक शिलालेख भी मिलते हैं जिनमें भी इनके विषयका कितनाक सूचनात्मक एवं परिचयात्मक निर्देश किया हुआ उपलब्ध होता है । परन्तु है I Jain Education International , For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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