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________________ ११८ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । उसमें कोई आपत्ति नहीं होगी ।' तब अर्हदत्तने कहा- 'क्या तुम अनीतिको रोकना पसन्द नहीं करते ? यदि करते हो तो फिर तुमको भी लोगों को ऐसे निंदात्मक कथनसे रोकना चहिये । और फिर लोक क्या इन भागवतोंके विरुद्धमें भी कुछ कहते नहीं रहते हैं ?' कमलने उत्तर में कहा- 'क्या हमारे त्रिदंडी भी तांबरों की तरह विरुद्ध लोकाचरण करते हैं ?' उत्तरमें अर्हद्दत्तने कहा- 'सो मैं नहीं कहता - लोगोंको पूछो ।' इस तरह वह कमल वणिक, त्रिदंडियों द्वारा जो साधुओंकी निंदा की जाती थी उसको पसन्द किया करता था, लेकिन रोकता नहीं था । उसके पापसे वह मर कर दुर्गतिमें गया और अनेक जन्म-जन्मांतरोंमें भयंकर दुःख भोगता रहा । बादमें, किसी पुण्यके उदयसे महाविदेहमें एक अच्छे कुलवान सेठके वहां पुत्ररूपसे उसने जन्म लिया । लेकिन जब वह पांच वर्षका हुआ तो महामारीकी बिमारीके सबबसे उसके घरके सब मनुष्य मर गये । वह अनाथ हो कर घर-घर से भीख मांगने जैसा हो गया । अन्य किसी समय में वहां पर केवलज्ञानी महात्मा आये तो अन्यान्य लोगोंके साथ वह भी उनको वंदन करनेको गया । अवसर पा कर उसने केवली से पूछा कि - 'भगवन् ! मैंने किसी पूर्व जन्ममें ऐसा क्या अशुभ कर्म किया है जिसके फल से ऐसे बडे अच्छे धनवान् कुलमें जन्म ले कर भी मैं इस प्रकार की दुःखित अवस्थाको प्राप्त हुआ ? बालपनमें ही माता-पिता मर गये, धन जो जिसके पास था वह उसीके पास रह गया, जो भी जमीनमें कुछ होगा वह जमीनमें ही दबा रहा और मैं वैसे बापका बेटा हो कर भी भीख मांगता फिरता हूं और सो भी अच्छी तरह नहीं पा रहा हूं - घर-घर पर कठोर वचन सुननेको मिलते हैं । तो मेरे कौनसे कर्मका यह फल है ? । I तब केवलीने कहा- 'भद्रमुख, प्रायः जीर्णशेष ऐसे पुरातन कर्मका यह फल है ।' ऐसा कह कर उन्होंने उसके उस पूर्वजन्मका सब हाल कह सुनाया और कहा कि - 'साधुजनों की निंदामें अनुमती देनेवाले उसी कर्मका यह फल तूं भोग रहा है ।' तब उस लडकेने पूछा कि - 'अब इसकी शुद्धिके लिये कोई प्रायश्चित्त भी है ?' उत्तरमें केवलीने कहा कि - 'साधुजनों का सम्मान बहुमान - सत्कार आदि कार्य करनेसे ये अशुभ कर्म दूर हो सकते हैं । तब वह श्रावक बना और यह अभिग्रह किया कि 'जब कोई साधुजन विचरते हुए इस शहरमें आवेंगे तो मैं उनका अभिगमन- वंदन नमन आदि किया करूंगा और शक्तिके मुताबिक उन्हें अन्न और वस्त्रका दान दूंगा । यदि प्रमादके वश किसी दिन मैं यह न कर सका तो उसदिन मैं अन्नका त्याग करूंगा ।" इस प्रकारका अभिग्रह ले कर वह अपने भावविशुद्धिसे फिर उन आवरक कर्मोंका क्षयोपशम होने लगा और उसके परिणाममें उसकी वह नष्ट हुई संपत्ति प्रकट होने लगी । वह फिर बडी उत्कट भक्तिसे साधुओंका अभिगमन- वंदनादि सत्कार करने लगा और उनको अन्नादिका दान देने लगा । वस्त्र - पात्र - कंबल आदि वस्तुएं दे कर साधुओंको सम्मानित करने लगा । इस तरह बहुत समय तक श्रावक धर्मका पालन करके और फिर उत्तरावस्थामें श्रमणत्रत ग्रहण करके उसका आराधन करने लगा । अन्तमें मर कर सौधर्म स्वर्ग में उत्पन्न हुआ और फिर वहांसे च्युत हो कर मोक्ष गतिको प्राप्त हुआ । घर पर गया । उसकी इस कथानकगत वर्णनसे यह ज्ञात होगा कि शौचाचारप्रधान ब्राह्मणधर्मीय त्रिदंडी संन्यासी आदि परिव्राजकों द्वारा, जैन साधुओंके शौचाचार विषयक विचारोंके बारेमें कैसे आक्षेप किये जाते थे और जैनों द्वारा उसके किस तरह प्रत्युत्तर दिये जाते थे । Jain Education International * For Private & Personal Use Only - - www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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