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________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थों का विशेष विवेचन- कथाकोश प्रकरण । ११७ राजा आदि । ३ मध्यम, सेठ सार्थवाह आदि । ४ विमध्यम, अन्य कुटुंबी (किसान) आदि । ५ अधम, श्रेणिगत ( सुवर्णकार, कुंभकार, लोहकार आदि शिल्पकर्मकर) समुदाय । ६ अधमाधम, चंडाल आदि । इनमेंसे चक्रवर्ति आदिका आचार उत्तम माना जाय तो वह साधुओंको हो नहीं सकता । क्या ये तुम्हारे गुरु चक्रवर्तीकी ऋद्धि-समृद्धि के आचारसे युक्त हैं ? यदि कहो कि उत्तम जन हैं वे लोक हैं, तो क्या ये तुम्हारे त्रिदंडी गुरु राजाओंकेसे आचारोंका - जैसे कि परकीय देशोंका भंग करना, धनापहार करना, मृगया खेलना, मांसादि भक्षण करना - इत्यादि बातोंका आचरण करते हैं ? यदि कहो कि लोकसे मध्यम जनोंका तात्पर्य है, तो उनको भी व्यापार करना, जहाज चलाना, खेती करना, ब्याज- बट्टेसे धनकी वृद्धि करना, पुत्र-पुत्रियोंका व्याह करना, गाय, भैंस, ऊंट, घोडा आदिका संग्रह करना - इत्यादि प्रकारके आचार अभिमत हैं; इसीतरहसे विमध्यम जनोंका आचार पात्रमें दान देना आदि है | यदि तुम्हारे गुरु भी इन्हीं आचारोंका पालन करते हैं, तो फिर इन लोकोंमें और तुम्हारे गुरुओं में फर्क ही क्या रहा? यह तो बडा अच्छा गुरुस्थान प्राप्त किया ऐसा कहना चाहिये ! यदि शेष कुटुंबी ( किसान आदि ) जन लोक शब्दसे अभिप्रेत हैं तो क्या ये उनके जैसे कूट तोल मापका व्यवहार करने वाले और खेत बोना, ईख लगाना, पानी सींचना, क्यारे बनाना- इत्यादि प्रकारका कृषिकर्म करने वाले हैं ? यदि ऐसा ही करते हैं, तो इनका गुरुपद बहुत ही ठीक समझना चाहिये ! अगर कहो कि अधम जन लोक शब्दसे लेना चाहिये, तो फिर कुंभार, धोबी आदिके आचारोंका अनुसरण करना होगा; सो क्या तुम्हारे गुरु वैसे ही आचार वाले हैं ? यदि अधमाधमजन लोक शब्दसे लेना कहोगे, तो फिर चांडाल आदि जनोंके आचारोंका श्रेष्ठत्व मानना पडेगा । सो ही यदि ठीक है, तो फिर तुम्हारे गुरु भी धन्य ही हैं, जिनके ऐसे आचार हैं !' - इत्यादि प्रकारका अर्हदत्तका वैतंडिक विचार सुन कर, कमल खीज गया और बोला कि – 'अरे, तूंने यह सब कहां सीखा था ?' लोक-समाचार वह कहा जाता है जिसमें कहा गया है कि 'नित्यस्त्रायी नरकं न पश्यति' अर्थात् जो नित्य स्नान करता है वह नरकको नहीं जाता । इसीतरह शौच करने के विषयमें ऐसा कहा है कि 'एका लिंगे गुदें तिस्र' इत्यादि । यही लोक-समाचार है और ऐसा समाचार श्वेतांबरोंमें नहीं है । ' सुन कर अर्हदत्त ने कहा- 'भाई कमल ! यह आचार अव्यापक है । कोई श्रुतिवादी (ब्राह्मण ) इस प्रकार से शौचविधि नहीं करता । सब कोई राखका व्यवहार करते हैं । तो क्या फिर वे लोक बाह्याचरी सिद्ध नहीं होते ! फिर लोकमें तो यह आचार भी नित्य नहीं है । क्यों कि अतिसारादिके होने पर इस विधिका भी पालन नहीं किया जाता । तथा तुम्हारे घरोंमें जो बच्चे होते हैं वे तो सबको छूते फिरते हैं । जो यौवन-धन - गर्वित हैं वे अनजानी वैश्याओंका मुंह चाटते फिरते हैंउनका अधरपान करते रहते हैं । वे वैश्याएं धोजन हैं, रंगारिन हैं, या इंबनी हैं यह कौन जानता है । उनके मुंहकी लालाको चाटने वालोंकी शौच शुद्धि क्या होगी ? वे फिर अपने घर में जब आते हैं तब बासन- बरतनों को छूते ही हैं । ऐसे जनोंके घरों पर भोजन लेने वाले त्रिदंडियोंके आचार कैसे शुचिवान् समझे जांय ! फिर ये त्रिदंडी जब राजमार्गमें हो कर निकलते हैं तब, उस समय पनिहारियों आदि के वर्णशंकर समूहका संघट्ट होने पर, स्पर्शास्पर्शका विचार कहां किया जाता है ? इसलिये यह शौचवादीपना निरर्थक है । और जो यह कहा कि नित्य स्नान करने वाला नरकको नहीं जाता, इसमें तो त्रिदंडीयोंकी अपेक्षा मगर, मच्छ, कछुए आदि जलचरोंकी अधिक जीत होगी । इसलिये भाई कमल अच्छी तरह सोच विचार कर मनुष्यको बोलना चाहिये । जिसमें मी तुम्हारे जैसों को तो विशेष रूपसे ।' तब कमलने कहा - 'इसके लिये तुम लोगोंको मना करो, हमको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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