SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 150
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन-कथाकोश प्रकरण । ११९ शौचवादी ब्राह्मणभक्त कौशिक वणिकका कथानक ऐसा ही एक और कथानक जिनेश्वर सूरिने लिखा है जिसमें यह सूचित किया गया है कि सामान्य ब्राह्मण भी अपनी जातिके गर्वका कैसा अहंकार रखता है और जैनोंके शौचाचारकी कैसे निन्दा किये करता है । यह कथानक २९ वां, कौशिक वणिक कथानक है । पाठकोंके मनोरंजनार्थ एवं ज्ञानार्थ इसका मी सार यहां दे देते हैं। पाटलिपुत्र नामक नगरमें एक कौशिक नामक जन्मदरिद्री वणिक रहता था। उसी नगरमें वासव नामक एक धनवान् श्रमणोपासक (श्रावक) था जो कौशिकका बालमित्र था । वह कौशिक वणिक ब्राह्मणोंका भक्त था । उसके पडोसहीमें एक सोमड नामक ब्राह्मण रहता था जो अपनी जातिके लिये बडा गर्व रखता था। सोमड और कौशिक दोनोंका उठना बेठना एक साथ रहा करता था। - एक दफह वे दोनों साथ बैठे हुए थे। उस समय वह डोडा (ब्राह्मण ) जैन साधुओंकी निन्दा करने लगा। कौशिकने उसको कुछ मना नहीं किया और चुप हो कर बैठा रहा । इतनेमें वह वासव वहां पर आ पहुंचा । उसे देख कर सोमड बोलता हुआ चुप हो गया । वासबने पूछा - 'कौशिक, क्या करते हुए बैठे हो ? कुछ भी खुशी होने जैसा कोई प्रसंग मिला है क्या ?' कौशिकने कहा - 'नहीं, वैसा तो कुछ नहीं है ।' वासव- 'क्यों वैसा क्यों नहीं है ? साधुनिन्दासे बढ़ कर भले आदमियोंके लिये खुशी होनेका और क्या प्रसंग हो सकता है ?' कौशिक बोला- 'मैंने क्या अपराध किया ?' वासव - 'यदि इस डोडे (ब्राह्मण ) को निन्दासे रोक नहीं सकता है, तो क्या उठ कर दूसरी जगह चले जाना भी नहीं बनता है ? क्या तुझे इस नीतिवाक्यका पता नहीं है कि- 'जो महापुरुषोंके विरुद्ध बोलता है वह ही नहीं बल्कि जो वैसा सुनता रहता है वह भी पापका भागी बनता है । इसलिये तूं तो इस डोडेसे भी अधिक पापी है । और अरे डोड! तूं खुद कैसा है जो साधुओंको निंद रहा है ? डोड'वे शौच धर्मसे वर्जित है इसलिये ।' वासव - 'बता तो वह कौनसा शौच धर्म है जिससे हमारे साधु वर्जित है ? । सोमडने कहा- 'शास्त्रोमें कहा है कि- “मनुष्यको शौच शुद्धिके निमित्त, लिंगको एक वार, गुदाको तीन वार, एक हाथको दश वार, और दोनों हाथोंको सात वार मिट्टीसे साफ करना चाहिये । यह शौचविधि गृहस्थोंके लिये हैं । ब्रह्मचारियोंको इससे दुगुनी, वानप्रस्थोंको तिगुनी और यतियों को चारगुनी शौचशुद्धि करनी चाहिये ।" इत्यादि । सुन कर वासवने कहा - 'अरे भाई, तब तो तूं मर गया समझ । क्यों कि तुम्हारे मतमें तो मधुसूदन (विष्णु)को सर्वगत बतलाया है । जैसा कि नीचेके श्लोकमें कहा है - अहं च पृथिवी पार्थ ! वाय्वग्निजलमप्यहम् । वनस्पतिगतश्चाहं सर्वभूतगतोऽप्यहम् ॥ यो मां सर्वगतं ज्ञात्वा न हनिष्यति कदाचन । तस्याहं न प्रणस्यामि स च न मे प्रणस्यति ॥ इस कथनानुसार पृथ्वी भी वासुदेव है, जल मी वासुदेव है । उन्हींसे शौच किया जाता है ! तो फिर इस तरह अपने; देवद्वारा आपका धावन आदिकी क्रियाएं करना संगत है क्या ? । और जो तूं यह कहता है कि साधु तो शूद हैसो तूंने वह श्लोक पढा है या नहीं ? जिसमें कहा गया है कि जो ब्राह्मण हो कर तिलमात्र प्रमाण भी भूमिका कर्षण करता है वह इस जन्ममें शूदत्व प्राप्त करता है और मर कर नरकमें जाता है। नरकमें जाता है .. तिलमात्रप्रमाणां तु भूमि कर्षति यो द्विजः । इह जन्मनि शूद्रत्वं मृतो हि नरकं व्रजेत् ॥ _f जिनेश्वर सूरिने जैन निन्दक ब्राह्मणके लिये यह नया शब्द प्रयोग किया है जो शब्दकोशवालोंको विचारने लायक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy