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________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन- कथाकोश प्रकरण । १०३ सूरिने कहा - 'उद्दिष्ट करके चैत्यादिका बनवाना सावध वचन है । द्रव्यस्तवके उपदेशके समय द्रव्यस्तवकी प्ररूपणा करना अनवद्य कर्म है ।' तब उन साधुओंने कहा - 'अहो, ये तो चैत्य भवनोंका बनवाना भी सावद्य कर्म बतला रहे हैं । इसलिये इन्हें तो सावद्याचार्य के नामसे संबोधन करना अच्छा होगा ।' फिर तो सर्वत्र उनकी वैसी ही प्रसिद्धि हो गई और वे वहांसे अन्यत्र चले गये । इस कथनको लक्ष्य करके समुद्रदत्त सूरि उस विक्रमसार राजासे कह रहे हैं कि - 'हे राजन्, तुम जो यह प्रश्न कर रहे हो कि क्या कोई ऐसा भी व्यक्ति होगा जो जिनवचनका बहुमान न करना चाहेगा; सो इस प्रसंगसे समझ सकते हो ।' तब फिर राजाने पूछा कि - 'भगवन्, क्या वे सूरि फिर वहां कभी आये या नहीं ?" आचार्य ने कहा - 'अन्य किसी समय उन शिथिलाचारियोंमें परस्पर विवाद खडा हो गया । कोई कहने लगे कि इन गृहस्थों को जो पहले हमने आग्रहपूर्वक पूजादिमें नियुक्त किया है ये प्रमत्त भावसे तथा धर्म मन्दोत्साहसे चैत्योंके रक्षण और पूजादि कार्यमें ठीक प्रवृत्त नहीं हो रहे हैं, इसलिये यदि ये कार्य स्वयं हम नहीं देखेंगे या करेंगे तो मार्गका ( अपने मतका ) नाश हो जायगा । शक्ति और सामर्थ्य के रहते हुए चैत्योंकी उपेक्षा करना युक्त नहीं है । इसलिये कालोचित जो कार्य हैं वे साधुओंको स्वयं ही करने चाहिये । तब दूसरे उनके कथनका विरोध करने लगे और कहने लगे कि नहीं स्वयं ऐसे कार्य नहीं करने चाहिये । इत्यादि । इस तरह की पक्षापक्षीसे उनके बीचमें बड़ा भारी विवाद खडा हो गया और वह किसी तरह भी मिटता हुआ नहीं दिखाई देने लगा । तब किसीने कहा - ' वह सावद्याचार्य बहुश्रुत हैं, उनको यहां बुलाना चाहिये । वे आगम जानते हैं । आगमके ज्ञानके विना इस प्रकारका विवाद नहीं मिट सकता ।" यह विचार सबको संमत हुआ । उन्होंने दो साधुओं को उन आचार्य के पास भेजा । वे वहां यथासमय पहुंचे और आचार्यसे कहने लगे कि 'हमको अपने संघने आपके पास भेजा है।' आचार्यने पूछा'किस लिये ?' तो उन्होंने कहा - 'इस इस प्रकार हमारे वहां परस्पर बडा विवाद उत्पन्न हो गया है सो आपके आने से मिट जायगा ।' 1 इस पर सूरिने कहा – 'मेरे एक विचारको सुन कर तो तुमने मुझे सावद्याचार्य बना दिया है; और अब जो मैं वहां गया तो न मालूम कैसा क्या करो, जिसको मैं जीवनतक भी न भूल पाऊं । इससे तुम्हारे वचनसे वहां पर हमको जानेकी क्या जरूरत है । और फिर हमारे वहां जाने पर भी कोई उपकार नहीं होगा । क्यों कि वे साधु प्रवचनकी भक्तिसे शून्य हैं । जिनके मनमें जिनवचन पर बहुमान हो उनके ऐसे उल्लाप नहीं होते । यदि प्रसंगवश वर्णन करते हुए कथकके वचनमें, किसी तत्त्वके विषयका, कोई संशय उत्पन्न हो जाय तो उसका कारण पूछना चाहिये और उसको भी अपने कथन के समर्थन में जिनवचन बताना चाहिये; और वैसे जिनवचनको 'तथेति' कह कर स्वीकार करना चाहिये । जिनकी नीति ऐसी नहीं है उनके बीचमें जा कर मैं क्या कर सकता हूं ?' 1 यह सुन कर उन आगंतुक साधुओंने कहा- 'भगवन्, ऐसा आप मत कहिये । आपके आगमन से वहां बहुतों पर अनुग्रह होगा इसलिये अवश्य चलिये ।' सूरि बोले - 'भाई अनुग्रहमें तो कर्मका क्षयोपशम ही कारणभूत है । आचार्य तो उसके निमित्त मात्र हैं और वह भी भवितव्यता के योगसे ही किसीको होता है। किं तु उपकारभावके सन्दिग्ध होने पर भी किसी-न-किसी को संबोधिभाव प्राप्त हो जाय इस उद्देशसे छद्मस्थको देशना तो करते ही रहना चाहिये ।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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