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________________ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि। निर्वाहके योग्य वसति बनवाने का निमित्त बना कर वे मन्दिर बन्धवाये, न कि गुण-दोषका सम्यक् निरूपण करके परोपकारकी दृष्टिसे बन्धवाये थे । यहां फिर बीचमें, विक्रमसेन राजाने आचार्यसे पूछा कि- 'जो श्रावक सामायिक ले कर बैठा है उसकी पुष्पादिसे जिनमूर्तिकी पूजा करनी योग्य है या नहीं ?' - इसके उत्तर में आचार्यने कहा कि नहीं। तब राजाने पुनः प्रश्न किया कि- 'क्यों नहीं ? क्यों कि उसने सामायिक व्रत लेते समय सावधयोगका प्रत्याख्यान किया है और जिनपूजा तो सावद्य नहीं है । यदि ऐसा न होता तो फिर साधुवन्दनासूत्रमें “वंदणवत्तियाए पूयणवत्तियाए सकारवत्तियाए" इस प्रकारका विधान कैसे किया गया है ?' उत्तरमें समाधान करते हुए सूरिने कहा - 'महाभाग, उसका तो भावार्थ यह है कि साधुओंका वचनमात्रसे ही द्रव्यस्तव करनेका अधिकार है, न कि शरीरसे । और यह वचनमात्रका अधिकार भी देशनाके समयमें; न कि "तुम बाडी( बगीचे )में जा कर फूलोंको चिन लाओ, स्नान-पूजा करो, धूप दो, आरती उतारो" इस प्रकारका क्रियाविधिके समयमें, साक्षात् आदेश करनेका अधिकार है । धर्मोपदेश करते समय द्रव्यस्तवका सविस्तर निरूपण करना ही उनका कर्तव्य है। - इस प्रकारका और भी कितनाक शंका-समाधान निदर्शक वर्णन यहां पर आचार्य ने किया है जिसे सुन कर राजा विक्रमसेनको संतोष हुआ और वह फिर आचार्यसे, उस सावद्याचार्यकी कथाका आगेका भाग सुनानेके लिये प्रार्थना करते हुए बोला- 'हां भगवन् , यह सब ठीक ही है। अब आप आगेकी प्रस्तुत कथा कहिये। __ तब आचार्यने कथाके सूत्रको आगे चलाते हुए कहा- 'तब फिर वहां पर जिस यतिजनके जितने .. श्रावक आये उनको बुला कर मन्दिरके बनवानेमें नियुक्त किये । परंतु उन्होंने अपनी साधनसंपत्ति और शक्तिका कोई खयाल करके उसका प्रारंभ नहीं किया था जिससे वह कार्य शीघ्र समाप्त हो जाय । उन्होंने तो अपने उपकारक ऐसे गुरुओंके हितके अनुरोधसे कार्य शुरू किया था । इसलिये सिर्फ जिनबिम्बके बैठाने मात्र जितने स्थानवाले मन्दिरका भाग बनवा कर, उसके पास अपने निवासके लिये, बडे पक्के और मजबूत मठ बनवाये और उनमें वे सुखसे रहने लगे । इतनेमें, जिनागममें बतलाई हुई क्रियाओंमें निरत और स्व-परके शुभ-अध्यवसायोंके कारणभूत ऐसे कुलप्रभ नामके आचार्य, साधुधर्मके नियमानुसार विचरण करते हुए, अपने पांच सौ शिष्योंके साथ, उस गाँवमें आ पहुंचे । गाँवके श्रावक उनका बहुमान करने लगे। उन स्थानस्थित साधुओंको इसकी खबर मिली, तो उन्होंने सोचा कि यह आचार्य क्रियानिष्ठ है, अतः लोगोंको बहुमान्य होगा और लोग इसके कहनेमें चलेंगे । इसलिये इसको अपने अनुकूल बनाना चाहिये- ऐसा विचार करके वन्दनादि द्वारा उनका आदरोपचार करने लगे। इस प्रकार वहां रहते हुए कुलप्रभ सूरिका जब मासकल्प पूरा होने आया तो वहांसे वे विहार करनेको उद्यत हुए । तब उन गाँवनिवासी साधुओंने कहा कि- 'भगवन् , आप यहीं वर्षाकालीन चातुर्मास व्यतीत करें ।' सूरिने उत्तरमें कहा- 'मुझे यह कल्पनीय (आचरणीय ) नहीं है । यहां रहनेका मुझे प्रयोजन क्या है ?? ___ उन्होंने कहा- 'न भगवन्, ऐसा मत कहिये । ये श्रावक लोग आपमें अनुरक्त हैं । आपके वचनसे ये जो अधुरे पडे हुए जिनमन्दिर हैं जल्दीसे पूरे हो जायंगे; और अन्य भी नये मन्दिर बनेंगे । इसलिये कल्पातिक्रमसे अर्थात् समय हो जाने पर भी अधिक ठहरने में आपको यह निमित्त है ही ।' सूरिने कहा- 'साधुओंको सावध वाणी बोलना कल्प्य नहीं है।' उन साधुओंने पूछा- 'इसमें सावध वाणीका कहां प्रसंग है !! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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