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________________ १४ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । इस विचारको लक्ष्य करके 'वर्तमान-योग' हुआ और शरीरादिका कोई कारण बाधक न हुआ तो विहार करते हुए हम वहां पर आनेका प्रयत्न करेंगे।' . सुन कर वे आवाहक ( आमन्त्रण करनेवाले ) साधु चले गये । बादमें सावद्याचार्य भी विहारक्रमसे चलते हुए यथासमय वहां पहुंचे । वहांके निवासी साधुओंने उनके आने की खबर सुनी तो, वे बडे ठाठ-पाठसे गाँवके चतुर्विध संघको साथ ले कर उनका स्वागत करनेके लिये सम्मुख गये । __ उस गाँवमें एक मुग्ध आर्यिका ( संयतिनी ) रहती थी जो यह देख कर सोचने लगी कि - यह कोई तीर्थकरके जैसा महात्मा आ रहा है, जिसका स्वागत करनेके लिये संघ इस प्रकारके ठाठसे निकल रहा है । इससे बडी उत्कट भक्तिके साथ आचार्यके समीप जा कर, उसने वन्दन किया । वैसा करते समय उसके सिरके बाल आचार्यके पैरोंको लग गये । आचार्यने यह देखा । औरोंने भी देखा, परंतु वे न जान सके कि यह अच्छा है या बुरा । आचार्यका बडे उत्सबके साथ गाँवमें प्रवेश कराया गया और ठहरनेके लिये योग्य वसति दी गई। ___विश्रान्ति लेनेके बाद उन यतियोंने कहा - 'हमारे बीचमें इस इस प्रकारका वाद-विवाद चल रहा है । इसका निर्णय देनेमें आप हमें प्रमाण हैं।' सूरिने कहा- 'हम आगमका व्याख्यान करेंगे इसमें युक्तायुक्त क्या है इसका विचार तुम खयं करना। अन्यथा किसीएक पक्षकी मुझ पर अप्रीति होगी ।' आचार्यके इस वचनको सबने बहुमानपूर्वक खीकार किया । ___ अच्छे मुहूर्तवाले दिनमें व्याख्यानका प्रारंभ हुआ। वे सभी यति आ कर सुननेको बैठने लगे । आचार्य अपने कंठगत सूत्रोंका उच्चारण करके फिर उनका व्याख्यान करते थे । क्यों कि उस समय तक पुस्तक लिखे नहीं गये थे। इस प्रकार व्याख्यान करते हुए, एक समय एक गाथा सूत्रका आचार्यने उच्चारण किया, जिसका भावार्थ यह था कि "जिस गच्छ (साधुसमुदाय) में कारणके उत्पन्न होने पर भी यदि साधु, चाहे वह फिर केवली ही क्यों न हो, स्वयं अनन्तरिक रूपसे ( अर्थात् सीधा) स्त्रीका करस्पर्श करे तो वह गच्छ मूल गुणसे भ्रष्ट हुआ समझना चाहिये।" __इस गाथाका उच्चारण करनेके बाद आचार्यको उसका अर्थ समझानेके वक्त खयाल हुआ कि इसको न समझाना ही ठीक है । क्यों कि इसका मतलब समझ लेने पर ये लोक दुर्बुद्धिवाले होनेसे उस दिन मेरे पैरोंका उस साध्वीके केशोंसे जो संघट्ट स्पर्श हो गया था उसका स्मरण करते हुए, मेरा उड्डाह करें गे। इसलिये इसको नहीं पहूं तो कैसा ? अथवा नहीं ऐसा नहीं करना चाहिये । क्यों कि आगमका छिपाना अनन्त संसारमें , भवभ्रमणका कारण होता है । इससे जो कुछ होना हो सो हो, मुझे गाथा तो पढनी ही चाहिये - ऐसा विचार करके उन्होंने वह गाथासूत्र पढा और उसका व्याख्यान किया। __गाथाका व्याख्यान सुनते ही वहां पर बैठे हुए वे सब यति एक साथ बोलने लगे कि- 'तुम्हारा उस दिन उस संयतिनीके केशोंसे पादसंघट्ट हो गया था इसलिये तब तो तुम मूलगुणभ्रष्ट सिद्ध होते हो। अतः या तो इसका ठीक समाधान करो या इस आसनसे फिर नीचे उतरो । नहीं तो फिर पैरोंसे पकड कर घसीटते हुए तुमको हमें बहार निकालना पडेगा ।' __उन शठोंका यह आलाप सुन कर वह आचार्य भयभीत हो कर खिसाना बन गया और उसके शरीरमें पसीना-पसीना हो गया। उससे कोई ऐसा उत्तर देते नहीं बना, कि- 'अरे, इसमें तुम्हारे कथनका कहां कोई अवकाश है ? क्यों कि इसमें जो यह कहा गया है कि 'जो स्वयं करता है। इसका तात्पर्य यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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