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________________ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि। भीम-'तो तुम बतलाओ। अजितसेन सूरिने कहा- 'जीत व्यवहार उसका नाम है - जो अशठ पुरुषोंने, कहीं, किसी कारणसे, असावद्य ऐसा व्यवहार आचरित किया और जिसका दूसरोंने निषेध न कर बहुमानपूर्वक स्वीकार किया और उसका आचरण भी किया ।। इसपर धवल बोला- 'तो क्या स्वयंकारित अथवा निजपूर्वजकारित जिनमन्दिर, जिनबिबादिका पूजादि करना शठोंका आचरित व्यवहार है ?' । इसका समाधान करनेकी दृष्टिसे सूरिने कहा कि- 'इस विषयका मैं एक आख्यान तुमको सुनाना चाहता हूं सो सुनो।' कुन्तला रानीका आख्यान । क्षितिप्रतिष्ठित नामके नगरमें एक जितशत्रु राजा था जो श्रावकधर्मका पालन करनेवाला था । उसकी सब रानियोंमें प्रधान ऐसी एक कुन्तला नामकी पट्टरानी थी। किसी समय राजाके मनमें यह विचार हुआ कि मैं दीक्षा ले कर प्रव्रज्याका पालन करनेमें तो असमर्थ हूं, वैसे ही उत्तम प्रकारके देशविरति व्रतका पालन भी ठीक नहीं कर सकता । इसलिये दर्शनविशुद्धिका कारणभूत अच्छा चैत्य (जैनमन्दिर ) मैं बनवाऊं । ऐसा विचार कर अपने भवन (राजप्रासाद )के निकट ही एक चैत्य उसने बनवाया और उसमें महापूजाके योग्य भव्य प्रतिमा प्रतिष्ठित कराई । प्रतिदिन वह उसकी पूजा करने लगा । 'यथा राजा तथा प्रजा' इस नीतिके अनुसार उस राजाकी रानियोंने भी श्रावकधर्म स्वीकार किया। उन्होंने भी राजाके बनाये हुए उस मन्दिरकी जगतीमें अपने अपने वैभवके अनुसार देवकुलिकायें (छोटे छोटे मन्दिर) बनवाई । कुन्तला पट्टरानीने भी वहीं एक अच्छा बडा मन्दिर बनवाया । वह उसमें रोज पूजा-स्नान आदि करवाती । उस विशाल मन्दिरमें पूजाके लिये जो मालाकार ( माली लोक) फूल लाते तो उन्हें वह कहती- सब फूल मुझे ही आ कर देना और किसीको मत देना । इसी तरह जो गायन, वादक नर्तक-नर्तिकादि आते उन्हें अन्य देवकुलोंमें जानेसे रोकती और अपने मन्दिरमें आनेको कहती। कभी वह ऐसा सुनती या देखती कि किसी दूसरी रानीके मन्दिरमें महोत्सव हो रहा है, तो वह मनमें खूब चिढती । यदि ऐसा कुछ सुनती देखती कि औरोंके मन्दिरमें कुछ अच्छा नहीं हुआ है, तो उससे उसके मनमें खुशी होती । इस प्रकारके ईर्ष्याभावके कारण और मृत्युके समय भी अपने मानसिक व्यापार व व्यवहारका कुछ पश्चात्ताप न कर, एवं किसी प्रकारकी आलोचना न ले कर, वह मर कर उसी नगरमें काली कुतियाके रूपमें पैदा हुई । पूर्वभवके अभ्यासके कारण वह उसी अपने बनाये हुए मन्दिरके अंगनमें जा कर पडी रहने लगी। अन्य समय कोई केवलज्ञानी साधु वहां आये । राजा अपनी अन्य रानियोंके साथ उनको वन्दन करने गया । अवसर पा कर राजाने अपनी मृत रानीके विषयमें पूछा कि- 'भगवन् , मेरी पट्टरानी कुन्तला देवी मर कर कौनसे वर्गमें अवतीर्ण हुई है ?' सुन कर केवलीने कहा- 'वह तो मर कर इसी नगरमें काली कुतिया हुई है और जो उसके बनाए हुए मंन्दिरमें हमेशां पड़ी हुई दिखाई देती है वही वह कुन्तला है।' तब राजाने पूछा- 'भगवन् , यह कैसे ? वह तो वैसी उत्तम प्रकारकी चैत्यभक्ति करती थी । उसका ऐसा फल कैसे हुआ ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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